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Saturday, December 20, 2008

तुम्हारा इंतजार

कभी आते थे तुम्हारे साथ
बासंती हवा के झोंके,
सावन की बारिश की
रिमझिम फुहारें,

तुम्हारे होंठों से छू कर
भर जातीं थीं हथेलियाँ
मेहंदी के बूटोंसे।

बिना दस्तक के ही
खुल जाते थे किवाड़
और सामने तुम्हें देख
धड़क उठता था दिल
कानों में।

जाने कब,
जिंदगी के जंगल में
बिलाती चली गयीं
जिंदगी को जिन्दा रखने की
ये जरूरतें।

इंतजार तो अब भी
रहता है तुम्हारा ,
लेकिन अब
धड़कनों को
तुम्हारे आने का पता नहीं चलता।

Wednesday, December 10, 2008

तेरे एक फोन से

एक फोन कर
कुछ देर के लिए तो
टूटे मेरे मन की जड़ता,
कुछ देर तक
जुगाली करती रहूँ
तेरी बातों की।

तालाब के निष्क्रिये पड़े पानी में
कंकड़ फेंकने से
जैसे उठती है लहरें
महसूसती रहूँ
तेरी बातों से उठती
तरंगों को।

तेरी खुश-खुश बातों से
पुँछ जाए
मेरे मन की उदासी,
बसा कर तेरे सपनों को
अपनी आखों में
ले आऊँ थोडी देर को
अपने होठों पर भी
मुस्कराहट।

पोंछ कर
आंखों के कोनों में
उतर आए पानी की
बूंदों को
फ़िर से लग जाऊं
घर के काम में
एक फोन तो कर।

Monday, November 24, 2008

त्रासद

इतना त्रासद नहीं है
तमाम उम्र ढूढ़ते रहना
सपने के उस पुरूष को
जिसे तराशा था आपने तब
जब आपने सपने देखने की
शुरुआत की थी।

त्रासद यह भी नहीं
कि उम्र के एक मोड़ पर आकर
वह आपको दिखे तो जरूर
पर आपको देख न पाये।

त्रासद यह भी नहीं है
कि सपनों का वह पुरूष
दौपदी की चाहत की तरह
अलग-अलग पुरुषों में मिले।

त्रासद तो ये है
कि जिसे आपने कभी चाहा ही नहीं
उससे यह कहते हुए तमाम उम्र गुजारना
कि तुम ही तो थे मेरे सपनों में।

Monday, November 17, 2008

काश

कोई एक दिन जिउं
अपने मन का,
रात देखे सपने के साथ
सुबह मुस्कुरा के जागूँ
और दिन के किसी खाली कोने में
खुली खिड़की के पार
उड़ जाऊं
किसी खुशनुमा ख्याल के साथ।

निकाल लाऊं
बक्से के किसी कोने में छिपी
कोई नाजुक-सी स्मृति,
और छू लूँ किसी
नर्म से एहसास को।

बदल के
बालों में बनी मांग को
आईने में देख लूँ जरा
अपना चेहरा
और मुस्कुरा लूँ
अपने बचपने पर।

बिस्तर में औंधे लेट कर
टांगो को हिलाते हुए
घड़ी की सुइयों से बेखबर
पढूं कोई कहानी।
एक दिन तो जिउं
अपने मन का।

Monday, November 10, 2008

उन सबों को जिन्होंने हौसला अफजाई की है

बलॉग क्या कम्पूटर की ही दुनिया में नई हूँ। बस कदम - कदम चलना सीख रही हूँ। कोशिश है कि गिरते पड़ते ही सही चलती रहूँ ताकि रख सकूँ अपना मन सबके सामने जो उमड़ता है , उफनता है और बिखर जाता है। चाहती हूँ बिखरने से बचा लूँ इसे क्योंकि जिन्दगी बहुत लम्बी है और न चाहते हुए भी इसे जीना तो है ही। डरने लगी हूँ कि माँ कि तरह हर एक दिन मृत्यु कि प्रतीक्षा में जीते हुए न गुजरे, इसलिए जिन्दगी को जीने कि कोशिश जारी है। बस, आज इतना ही।

Sunday, November 9, 2008

पेट के जाये से

कल ही तो गया है तू
और मैं गिनने लगी हूँ
तेरे लौटने के दिन,
क्योंकि जब तू लौटेगा
फ़िर हँसने लगेंगे
मेरे दिन, और
गपिआने लगेंगी रातें
कि फ़िर से बाँट सकूंगी
मैं तुमसे,
उतने दिन के सुख
और दुःख,
सुबह में देखे सपने,
किसी फ़िल्म की कहानी,
किसी उपन्यास से
उपजे विचार,
अपनी कल्पनाएं,
मुहल्ले के समाचार,
रिश्ते नातों की
शिकायतें।
हर वो बात
जो मैं कहती रहूंगी
ख़ुद से,
तेरे लौटने तक।
तू,
जो जाया है
मेरे पेट का।

Thursday, October 30, 2008

जीने की वजह

अभी डरता है मेरा बेटा
मेरे मरने के नाम से ।
आँख में भर लेता है आँसू
सिरिंज में भरे हुए खून को
देख कर।
मैं समझाती हूँ उसे,
बड़े हो गए हो तुम,
अब जरूरत नहीं है तुम्हें मेरी,
पापा रख देंगे खाना बनानेवाली,
कपडे धोनेवाली
एक दाई।

वह नहीं सुनाता है मेरी बात
सर हिला देता है।
किसका हाथ पकड़ कर सोयेगा,
कौन सुबह सुबह मुंह चूम कर उठाएगा,
किसे सुनाएगा अपने सपने,
किससे बांटेगा अपने दिल की बात,
कौन देगा
उसके अनगिनत प्रश्नों के ऊत्तर।
सीधी सरल भाषा में समझा देता है
अपनी जरुरत।

चलो, जीने की एक वजह तो बाकी है।