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Tuesday, December 8, 2009

मरहम

'देखो ना
फ़िर जल गया हाथ
छू गया गर्म तवे से'
'नाश्ता मिलने में देर है
अभी लगता है'
'लगा रही हूँ,
बस पाँच मिनट और।
देर से लौटोगे
क्या आज?'
'ओह,
मोज़े कहाँ चले गए मेरे!'
'वे रहे,
पड़े हैं जूतों के अन्दर।
थोड़ा लौटते सवेरे
तो निकलते कहीं हम
कितना वक्त हो गया
कहीं निकले हुए।'
'अब कहाँ चली गई
ये फाईल भी?'
'ये रही,
पड़ी थी टेबल पर।
आ सकोगे
थोड़ा पहले क्या?
'लगा लो दरवाजा।
हाँ, मत इंतजार करना
दुपहर के खाने पर मेरा,
मैं खा लूँगा कुछ
उधर ही।'
'अच्छा, लेकिन हो सके तो
कर देना एक फोन।'
'ठीक, बंद कर लो।'
चलूँ, समेटूं घर के
काम को।
अरे, पहले लगा लूँ
इस जले पर
कोई मरहम।

Wednesday, August 19, 2009

एक शाम

मुझे याद है वो शाम,
जब शाम का धुंधलका
खिड़की के बाहर
धीरे धीरे फ़ैल रहा था और
आकाश से कुहासे बरस रहे थे।
तुम बिस्तर पर लेटे थे
और मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
जाने कब बाहर फ़ैल रहा धुंधलका
तुम्हारे चहरे पर उतर आया,
और कमरे के गहराते अंधेरे में मैंने
तुम्हारी लम्बी पलकों पर
कुहासे की बुँदे देखी।
अनायास ही मेरे हाथ उठे ,
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था
और मेरी बाहें छोटी।
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।

Tuesday, July 28, 2009

इंशा अल्लाह मेरे बेटे

उसने बताया मुझे
क्लास की
सबसे सुंदर लड़की ने
किया है उसे 'प्रपोज'!
मैंने हंस कर कहा ,
स्वागत है उसका
हमारे परिवार में।
वह बोला ,
मुझे नहीं चाहिए
दीवार पर टांगने के लिए
कलैंडर ,
मुझे चाहिए
कंप्यूटर,
जिस पर बना सकूँ मैं
रोज नए प्रोग्राम।
मैंने हंस कर कहा,
क्या करेगा
दिमाग वाली लड़की ?
गृहस्थी के लिए
ठीक रहती हैं
कम दिमाग वाली
सुन्दर लड़कियां।
वह बोला
नहीं चाहिए मुझे
हर बात पर
'जैसी आपकी इच्छा ',
कहने वाली।
मुझे चाहिए वो
जो दे सके मुझे
सही और ग़लत का
निर्णय कर के।
मैंने पूछा
नौकरी करेगी वो?
हाँ माँ,
उसके होंगे ढेर सारे अधीनस्थ?
हाँ माँ,
उसका दिमाग होगा बाहर
लेकिन दिल होगा
घर में ?
हाँ माँ ,
बाँध कर रखेगी
पूरे परिवार को
अपनी बाहों में?
हाँ माँ ,
उसका चेहरा चमकेगा
स्वाभिमान की चमक से?
हां माँ,
वह 'ना' कह सकेगी तुझे
तेरी किसी बात के लिए?
हां माँ।
मैंने खुश हो कर कहा ,
फ़िर मैं बनाउंगी
उसके लिए भी खाना
उसकी पसंद का।
वह हंस कर बोला
'कुक ' रख लेंगे माँ।
इंशा अल्लाह मेरे बेटे!

Tuesday, July 7, 2009

कैसी हो तुम अब

उसे करनी होती हैं
बहुत सारी बातें
वह जब भी फोन करता है मुझे।
क्लास में मिले
किसी अच्छे कमेन्ट की,
ईर्ष्या से भरे
दोस्तों की प्रशंसाओं की,
कंधे पर टिके सर के
रेशमी बालों से
उठती खुशबुओं की,
अपनी महत्वाकांक्षाओं की,
बनते बिगड़ते योजनाओं की।
मैं चुप हो कर सुनती हूँ
आकाश में उड़ने को आतुर
उसके पंखों की आहटें ,
आशीषें देती हुई
हंसती रहती हूँ ,
उसकी बातों पर।
लेकिन शायद वह सुन लेता है
हँसी में दबी
मेरे अकेले पन की गूंज को,
आहिस्ता से उतर आता है
धरती पर ,
और पूछता है मुझसे ,
कैसी हो तुम अब?

Sunday, June 14, 2009

देह राग से परे

छुट्टी का एक दिन
मेरे साथ भी बिताओ जी!
नहीं, ऐसे नहीं।
देह राग से परे
सुनते हैं आज
कोई नया राग।
अच्छा, नहीं आता
तुम्हारी समझ में
ऐसा कुछ?
ठीक, चलो देख आते हैं
शहर की रौनक।
तुम्हे पसंद नहीं भीड़- भाड़?
मुझे भी कहाँ पसंद है।
चलो ,चलते हैं
किसी सूनी सड़क पर
जहाँ बिछे होंगे
पलाश के फूलों के लाल गलीचे।
मत करना दफ्तर की बातें
बच्चों के भविष्य की बातें भी नहीं
कुछ कहना तुम
अपने मन की,
कुछ कह लूंगी
मैं अपने दिल की।
अच्छा, नहीं बची है अब
तुम्हारे पास कोई बात
और सुन चुके हो मेरी भी बहुत!
चलो ठीक है,
कुछ नहीं बोलेंगे हम,
बस, चलते रहंगे
एक दूसरे का हाथ पकडे
और सुनेंगे,
गिरते पत्तों की ताल पर
बहती हवाओं का संगीत!
क्या कहा तुमने?
जब चुप ही रहना है
तो क्या बुरा है घर?
ठीक है फ़िर
तुम खोल लो टी वी
और मैं खोल लेती हूँ
फ़िर से आज का अखबार।
दिन ही तो काटने हैं,
कट जायेंगे!

Sunday, May 10, 2009

आईने से बाहर

किसी दिन
आईने से बाहर निकल
मेरे चेहरे,
घूम आ कहीं
सडकों, गलियों, चौराहों पर।
फैला कर अपने नथुनों को
भर ले ढेर सारी ताजा हवा,
अपने फेफडों में,
और सोंच ले
कि अब चुप नहीं रह जाएगा
हर बात पर
लम्बी साँसें खींच कर।
नोच कर फेंक दे
अपने होठों पर
ताले कि तरह जड़ी
इस मुस्कान को
और वो बोल
जो रुका है अर्से से
तेरी जुबान पर।
यह दिखा,
देखने वालों को
कि समझौतों के नाम पर
और पलकें नहीं झुकायेगा तूं ,
कि खीचने आते हैं
तुझे भी
भौहों के धनुष।
और मेरे चेहरे
यह तय कर ले
कि अब तेरा सर
टिका रहेगा
तेरे ख़ुद के कन्धों पर,
कि अब जीने के लिए
किसी और के कन्धों की भीख
नहीं मांगेगा तूं।
किसी दिन आईने से बाहर
निकल मेरे चेहरे,
किसी दिन बाहर निकल।

Monday, May 4, 2009

हैपी बर्थ डे भाई

आज 6 मई है। अनुराग का जन्मदिन। जबसे वह मुझे दुबारा मिला है, मैं उसे हर बार विश करती हूं; इस विश्वास के साथ कि उसे इसकी प्रतीक्षा होगी।

उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।

इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।

मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।

वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।

हैपी बर्थ डे भाई।

पुनश्च -
कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!

Sunday, April 26, 2009

लौट आई हूँ मैं

बादलों पर चलने और
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।

Friday, April 17, 2009

बात जो अटक गई

पिछले मार्च महीने में २५ तारीख के 'इंडिया टुडे ' का एक अंक आया 'इंडिया टुडे कान्क्लेभ'। मुख्यत: आंतंकवाद पर केंद्रित इस अंक में 'दलाई लामा' से लेकर पकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति 'परवेज मुशर्रफ ' से ले कर 'शाहरुख़ खान' तक के विचार छपे हैं। इन सभी भाषणों में जिन दो भाषणों ने मुझे सर्वाधिक आकृष्ट किया,वे हैं 'दलाई लामा' और 'मौलाना महमूद मदनी' के।
मैं कोई विचारक या आलोचक नहीं हूँ। बस एक सामान्य मनुष्य की तरह अच्छे और बुरे को देखती हूँ। इसलिए बस इतना ही कह सकती हूँ कि 'दलाई लामा' को पढ़ना सुख और शान्ति के बीच से गुजरने जैसा था। उनके भाषण के अन्तिम अंश के वाक्यों में एक वाक्य -"आप धार्मिक सहिष्णुता और अहिंसा के अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को अपनाएं"-मेरे विचार से अभी की परस्थिति की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
'मौलाना महमूद मदनी' साहब का भाषण बहुत प्रभावित करता है। यह दिमाग की धुंध साफ़ करने जैसा है। लेकिन उनके भाषण में जो बात मुझे अटक गई वो थी -"मुझसे पूछा जाता है कि मैं इस्लाम से मुहब्बत करता हूँ या इस मुल्क से ? यह एक कठिन सवाल है। अगर मैं कहता हूँ इस्लाम से तो वे मुझे राष्ट्रभक्त नहीं मानेंगे। मुझे हमेशा ही इस्लाम या भारत के प्रति अपनी वफादारी साबित कराने के लिए कहा जाता है। अब मैं कहता हूँ कि मेरी दो आँखे हैं और आप हमें बताएं कि किसे रखूं और किसे फेंक दूँ। लेकिन मैं अपने महजब को प्राथमिकता दूंगा जिसने मेरे अन्दर अपने मादरे वतन की रक्षा के लिए जिंदगी कुर्बान करने का जज्बा दिया ......."।
मैं 'मौलाना मदनी' साहब के विचारों का अत्यन्त आदर करते हुए अपनी तरफ़ से एक बात कहना चाहती हूँ-अगर कोई मुझे दो विकल्प दे, तुम हिंदू रहो लेकिन तुम्हें भारत छोड़ कर किसी और देश में में बस जाना होगा, या , तुम्हें भारत में रहने के लिए कोई दूसरा धर्म स्वीकार करना होगा, तो मैं निश्चित रूप से दूसरा विकल्प स्वीकार कर लुंगी। क्योकि मेरे लिए मेरा देश नि:संदेह मेरे धर्म से बड़ा है। इस विषय में मेरे इक ही आँख है ,वो है 'हिंदुस्तान'।

Tuesday, April 7, 2009

एक काली लकीर

सोंधा-सोंधा महकता है बाबु
जब लौटता है खेलकर
धूल मिटटी और
पसीने में नहाकर।
डाल कर अपनी बाहें
मेरे गले में
झूल जाता है
आम के पेड़ में झूलते
टिकोले की तरह।
रगड़ता है अपने गाल
मेरी बांह से,
दिखाता है अपने छिले हुए घुटने।
दर्द कम हो कुछ उसका,
मैं चूम लेती हूँ उसका मुंह
और ठिठक जाती हूँ।
बस, कुछ दिन और,
फ़िर रुई की तरह नर्म
इस होंठ पे ,
उभर आएगी
एक काली लकीर,
जो धीरे-धीरे फैलती चली जायेगी
मेरे और उसके बीच में।

Wednesday, April 1, 2009

कुछ क्षणिकाएं

(१)

लगा था कि
अंजलि भर गई,
कब तक ठहरता ?
पानी ही तो था,
बह गया।

(२)

मेरा हाथ माँगते हुए
तुमने कहा था,
बदल दूंगा इनकी लकीरें।
तुम्हारे हाथ में
अपनी हथेलियाँ
सौंपने के बाद लगा
तुममें रेखाओं को
बदलने की
इच्छा तो थी
चेष्टा नहीं

(३)

अब पीठ को घेरती
बांह नहीं होती
जिंदगी धरातल पर
उतर आई है,
बिन बोले ही
तय होने लगे हैं रास्ते ,
गृहस्ती चल निकली है।

(४)

जाने क्यों
अपना चेहरा
बदरंग नजर आने लगा है,
तुम्हारी आखों के दर्पण
धुंधलाने लगे हैं शायद।

----कुछ पुरानी रचनाएँ


Monday, March 23, 2009

अनुराग के कहने पर

अनुराग बार बार कहता रहा है -'ब्लाग में कविता के अलावे भी कुछ डाल।' और मैं हमेशा ही कहती रही हूँ -' दिमाग अब केंद्रित न हो पाव हउ ।' कभी किसी क्षण में बिजली की कौंध की तरह कलेजे में उतर आए किसी एहसास को कविता का जामा पहना कर प्रस्तुत करना ज्यादा आसान लगता है मुझे, लेकिन उसी एहसास को किसी विचार की तरह प्रस्तुत करना अब बहुत कठिन लगता है। कभी किसी पढ़े पर, किसी घटना पर कोई दो पंक्ति की कोई प्रतिक्रिया दिमाग में आती भी है, तो उसे पकड़ कर रखने की कोई उपयोगिता भी है - यह विचार भी मन में नहीं आया कभी, और साथ ही - यह प्रतिक्रिया क्या किसी प्रतिक्रिया के योग्य है - विश्वास भी मैं नहीं जुटा पाई कभी। लेकिन अनुराग का कहना है - वही दू लाइन सही, तू पहले लिख तो।

सो उसके हिम्मत बंधाने पर पिछले दिनों जो बातें मेरे मन में अटकती रहीं हैं उन्हें शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ-

मेरे विचार से किसी तरह की चर्चा के लिए या लिखने के लिए जो विषय सबसे ज्यादा उपयुक्त होता है वह है सामाजिक घटनाक्रम। सामाजिक घटनाक्रम से मेरा तात्पर्य नितांत कालोनी स्तर पर हो रही घटनाएँ ही नहीं , थोड़े बड़े परिप्रेक्ष से भी है।

जैसे -पिछले दिनों 'दैनिक जागरण' के अन्तिम पृष्ठ पर छपे एक समाचार ने मेरा ध्यान खींचा था -"मुख्तारन बाई ने शादी रचाई।"

समाचार पढ़ने वाले पकिस्तान की मुख्तारन बाई को भूले नहीं होंगे। ये वही मुख्तारन बाई हैं जिन्हें उनके गाँव के पंचायत ने उनके 12 साल के भाई के किसी ऊंची जाति की लड़की से प्रेम के अपराध में सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी। लेकिन मुख्तारन बाई ने अपने आप को टूटने से बचाया और बाद में स्त्रियों के उत्थान के लिए काम और संघर्ष करती रहीं। उन्होंने ही पिछले दिनों अपनी अधेड़ावस्था में विवाह किया। इस समाचार ने मुझे उस व्यक्ति में कुतूहल जगाया जिसने बाई से शादी की। मेरे मन में कई प्रश्न थे - वह व्यक्ति पहले से ही बाल-बच्चेदार है? उसने बाई से शादी क्यों की? क्या वह मुख्तारन बी की जिजीविषा से प्रभावित हुआ या उसने उन पर कोई अहसान किया? या फ़िर यह मुख्तारन बाई की अपनी कोई विवशता थी। और जो दूसरा प्रश्न यह था की क्या वैमनस्य की स्थिति में वह उनके विगत जीवन के उस काले अध्याय के लिए उन्हें कभी कोई उलाहना नहीं देगा?

फिलहाल मैं उनके सुखी जीवन की कामना करती हूँ ।

Sunday, March 15, 2009

नहीं कोई शिकायत नहीं

कितने गुमान भरे थे
वे दिन
जब मुझे था यकीन कि
बिछा दोगे तुम
अपनी हथेलियाँ
अगर तपती होगी जमीन
मेरे पैरों के नीचे।
लेकिन शायद थक गए थे तुम
मेरा यह विश्वाश
ढोते-ढोते।
कुछ प्राप्य भी तो नहीं था तुम्हें
सिर्फ़ एक विश्वाश का पाथेय
और जिन्दगी भर का सफर
इतना आसान नहीं था सब कुछ।
नहीं, कोई शिकायत नहीं,
दुःख भी नहीं है शायद,
हाँ, लेकिन याद तो
बहुत आती है तुम्हारी
जब तपती है जमीन
मेरे पैरों के नीचे।

Friday, March 6, 2009

कल एक कविता लिखूंगी

थके से दरवाजे
उबासी लेती हुई खिड़कियां
रात भर जागी
आंखों की तरह
बोझिल दीवारें।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।
लेकिन वो कल नहीं आता,
आता है केवल
नामविहीन
तारीखविहीन
एक दिन,
जिसमें होते हैं
सुबह, दोपहर और शाम।
और सुबह, दोपहर, शाम
कोई कविता नहीं होती,
हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में
चुपके से
एक दिन और जुड़ जाता है।
बिस्तर पर लेट कर मैं
दरवाजे के खुलने
और बंद होने में
दिन महीने और सालों को
चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी!
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।

Tuesday, February 24, 2009

एक खाली कप

ठिठकने लगी है उंगलियाँ अब
तुम्हारे नाम से दो शब्द
लिखने के बाद।
रुक जाती हूँ
फोन के बटन दबाते- दबाते।
तुमसे दो बातें कर लेने की इच्छा
लम्बी साँस बन कर
हवा में घुलने लगी है
सामने पड़ा चाय का एक
खाली कप भी
कुछ नहीं कहता,
अब अकले पी लेने की
आदत पड़ गई है।

Tuesday, February 10, 2009

सपने, नदी और भइया

अब नहीं आते हो भइया
तुम सपनों में।
वे सपने
जिनमें मैं फंस जाती थी
किसी सूनी सड़क पर,
बारिश से नहाये
हरे- हरे लंबे पेड़ों
और डराते काले बादलों के बीच
जब मेरे सामने आ जाती थी
एक गहरी नदी
और इस पार डरती- कांपती खड़ी मैं
सोचती रहती थी कैसे जाऊँ उस पार!
और फ़िर
जाने कहाँ से
तुम आ खड़े होते नदी के उस किनारे,
कूद कर नदी में
बढ़ाते अपना हाथ
और पकड़ कर तुम्हारा हाथ
मैं पार कर जाती थी
भय की उस नदी को।
फ़िर भागते चले जाते हम
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
उस घर को
जहाँ माँ कर रही होती थी हमारा इंतजार।

सपने में तुम
तब भी आते रहे भइया
जब तुमने पकड़ा दिया मेरा हाथ
एक अजनबी को
और विदा करते हुए मुझे
कहा अब यही चलेगा तेरे साथ
तेरे सपनों में।
लेकिन घबराकर
उन अजनबी रास्तों के गुंजलक से
मैं फ़िर पहुँच जाती
सपनों में
तुम्हारे पास
और पकड़ कर तुम्हारी उंगली
अपनी मुट्ठी में
निश्चिंत हो लेती
सुरक्षा के उस एहसास में।
लेकिन जब
तुमने मिटा डाले मेरे सारे निशाँ
जो देते थे गवाही
घर में मेरे होने की,
और खींच ली
अपनी वो ऊंगली
जो बंद थी मेरी मुट्ठी में
पारस की तरह।

मैं टटोलती रही
बहुत दिनों तक
अपनी खाली मुट्ठी को
और जूझती रही
सपनों की उस गहरी नदी से,
फ़िर एक दिन देखा
ख़ुद ही पहुँच गई हूँ उस किनारे
पार कर गई हूँ भय की नदी।

सपने तो
अब भी आते हैं भइया,
लेकिन
अब तुम नहीं आते हो
सपनों में।

Monday, February 2, 2009

तुम होते हो तो

तुम होते हो तो
सब कुछ होता है,
दीवारों से घिरा ये मकान
एक घर हो जाता है
छत के अंधेरे कोने
रोशन हो जाते हैं
बंद दरवाजे के और
खींचे हुए परदों के पीछे
पलती खामोशी
कहानियाँ कहने लगाती हैं
तुम्हारी उँगलियों से छू कर
हर कल्पना
सजीव हो जाती है
भींगे बालों में
आईने के सामने बैठना
अर्थपूर्ण हो जाता है।
तुम होते हो तो
सब कुछ होता है ।

--एक बहुत पुरानी कविता

Sunday, January 18, 2009

ओ स्त्री

ये कविता मैंने 30 दिसंबर को चोखेरबाली में सुजाता जी के पोस्ट पर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लिखी थी। प्रकाशित करने में देर हुई ।

ओ स्त्री
खड़ी रह यूँ ही
हाथों को अभय मुद्रा में
उठाये
माथे को आँचल से ढक के
पलकों को झुकाए,
तेरी यह मुद्रा
आश्वस्त करती है
कि
तू देती रहेगी क्षमा
हमें
हर गुनाह के लिए

बिना कोई प्रश्न पूछे
बिना कोई स्वर उठाए
किसी विरोध में।
बदले में उसके
हम कहते रहेंगे तुझे
देवी
त्याग कि मूर्ती
ममता की प्रतिकृति,
लेकिन तू
भूल से भी ख़ुद को
देवी समझने की
भूल मत करना
मत तानना अपना सिर
मत भरना आंखों में
अंगारे
मत उठाना हाथों में
भाले
क्योंकि तू है
हाड़ मांस की एक पुतली
नहीं है तुझमें शक्ति
शाप देने की
हाँ
ईश्वर ने जरुर बनाया है
तुझे कमजोर
और
दी हैं कुछ
शारीरिक विवशताएँ
और
हमारे एक हाथ में है
तेरी इस विवशता की
ढाल
और दूसरे में
हमारी पाशविक शक्ति की
तलवार
हम खींच सकते हैं
तेरी देह से
तेरा आँचल
रौंद सकते हैं तुझे
अपने पैरों तले।
बस इसी तरह
करती रह रखवाली
हमारे लिए
गुफा में जलती आग की।
और लौटने पर हमारे
परोसती रह हमें भुना मांस
और अपना शरीर
बदले में हम
करते रहेंगे तेरी रक्षा
जंगली भेड़ियों से
लेकिन
जिस दिन तू करेगी
चेष्टा
निकलने कि इस गुफा की
सीमा से
हम छोड़ देंगे
इन भेड़ियों को
नोचने के लिए
तेरी देह,
क्योंकि हमें आता है
यही एक तरीका
बताने का तुझे
तेरी सीमा।
ओ स्त्री खड़ी रह यूं ही।