ऊब और दूब पढ़ें, आप अपनी लिपि में (Read uub aur doob in your own script)

Hindi Roman(Eng) Gujarati Bangla Oriya Gurmukhi Telugu Tamil Kannada Malayalam

Sunday, January 18, 2009

ओ स्त्री

ये कविता मैंने 30 दिसंबर को चोखेरबाली में सुजाता जी के पोस्ट पर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लिखी थी। प्रकाशित करने में देर हुई ।

ओ स्त्री
खड़ी रह यूँ ही
हाथों को अभय मुद्रा में
उठाये
माथे को आँचल से ढक के
पलकों को झुकाए,
तेरी यह मुद्रा
आश्वस्त करती है
कि
तू देती रहेगी क्षमा
हमें
हर गुनाह के लिए

बिना कोई प्रश्न पूछे
बिना कोई स्वर उठाए
किसी विरोध में।
बदले में उसके
हम कहते रहेंगे तुझे
देवी
त्याग कि मूर्ती
ममता की प्रतिकृति,
लेकिन तू
भूल से भी ख़ुद को
देवी समझने की
भूल मत करना
मत तानना अपना सिर
मत भरना आंखों में
अंगारे
मत उठाना हाथों में
भाले
क्योंकि तू है
हाड़ मांस की एक पुतली
नहीं है तुझमें शक्ति
शाप देने की
हाँ
ईश्वर ने जरुर बनाया है
तुझे कमजोर
और
दी हैं कुछ
शारीरिक विवशताएँ
और
हमारे एक हाथ में है
तेरी इस विवशता की
ढाल
और दूसरे में
हमारी पाशविक शक्ति की
तलवार
हम खींच सकते हैं
तेरी देह से
तेरा आँचल
रौंद सकते हैं तुझे
अपने पैरों तले।
बस इसी तरह
करती रह रखवाली
हमारे लिए
गुफा में जलती आग की।
और लौटने पर हमारे
परोसती रह हमें भुना मांस
और अपना शरीर
बदले में हम
करते रहेंगे तेरी रक्षा
जंगली भेड़ियों से
लेकिन
जिस दिन तू करेगी
चेष्टा
निकलने कि इस गुफा की
सीमा से
हम छोड़ देंगे
इन भेड़ियों को
नोचने के लिए
तेरी देह,
क्योंकि हमें आता है
यही एक तरीका
बताने का तुझे
तेरी सीमा।
ओ स्त्री खड़ी रह यूं ही।