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Saturday, December 11, 2010

अधूरी कविता

सोचा था मैंने
लिखूंगी मैं भी
धधकती किसी घटना पर
सुलगती-सुलगाती
कोई कविता।

सामने था अखबार
सुर्खियों में छपा था
अपने पचहत्तर सैनिकों की
हत्या का समाचार।

भर आईं आंखें
कलम उठाने से पहले
जुड़ गये हाथ
प्रार्थना में
मिले उनकी आत्मा को
शांति
धैर्य मिले उनके परिजनों को।
पर जाने कैसे
बदल गये प्रार्थना के शब्द
शहर से दूर पोस्टेड
पति की मंगलकामना के लिए।

हर बार यही हो जाता है
मिलते हैं ट्रेन में बम
उड़ाई जाती हैं पटरियां
और इसके पहले कि
बिखरी हुई लाशों की पीड़ा
घायलों की चीखें
मथकर कलेजे को
ले सके शब्दों का
आकार,
उड़ जाती है
मेरी आंखों से नींद!
चढ़ चुका होगा मेरा बेटा
ऐसी ही किसी ट्रेन में
घर आने के लिए

कल ही हुआ था
स्कूल जा रहे बच्चे को
खींच ले गये थे
अपहरणकर्ता।
भीग गया मन
सोचकर
कैसे जी रही होगी उसकी मां
क्या-क्या मान रही होगी
मन्नतें,
जाने कहां-कहां टेक रही होगी
अपना माथा

लेकिन इसके पहले कि
डूब पाती मैं
उसकी पीड़ा में
घड़ी की सूइयों ने
बताया
कि देर हो रही है बाबू को
स्कूल से लौटने में।
रखकर हाथ की कलम
धाड़-धाड़ बजते कलेजे के साथ
मैं निकल आई
दरवाजे पर।

हर बार सोचती हूं
इस बार लिखूंगी
कुछ चुभता सा।
लेकिन हर बार रह जाती हूं
अपने ही भय की कीरचों से
बिंध कर।