tag:blogger.com,1999:blog-71860873937319574042024-03-05T15:09:11.178+05:30ऊब और दूबअपनी ऊब से भी मिलती है ऊर्जा और वह रचती है दूब...अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.comBlogger34125tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-75710372918073055932014-01-05T21:45:00.000+05:302014-01-05T21:45:13.003+05:30वापसी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तीन वर्षों के बाद एक बार फिर मैं अपने ब्लॉग पर हूँ। काफी लम्बा अर्सा है यह कुछ बदलने के लिये। लेकिन कुछ बदला नहीं। वही एक जैसे दिन-रात, वही एक जैसे सुख-दुख। उम्र के इस मोड़ पर कुछ बदलने की बात भी व्यर्थ ही है शायद। हाँ, जिन्दगी सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा में ना बीते, इसके लिये कुछ प्रयत्न अवश्य किये मैंने।<br />
अपनी स्मरणशक्ति और व्यस्तताओं से लड़ते हुये मैंने 'इग्नू' (इन्दिरा गांधी ओपेन यूनिवर्सिटी) से हिन्दी में एम. ए. कर लिया। इतने सालों के बाद पढ़ने के लिये पढ़ना और पढ़ कर याद रखना - सचमुच कठिन था। मैंने 55-56 % से ज्यादा की उम्मीद नहीं की थी, लेकिन जब रिजल्ट 62 % का आया तो सचमुच खुशी हुई थी।<br />
कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित हुईं। जिसमें 'परिकथा'-फरवरी 20011 नवलेखन अंक में छपी कहानी ' अनुत्तरित' ने काफी प्रशंसा पायी। और पिछले साल 'हंस' के अक्टूबर अंक में आयी कहानी 'एक मुलाकात के बाद' तो एक उप्लब्धि की तरह आयी। राजेन्द्र यादव जी से फोन पर - पहली और दुर्भाग्य से आखिरी भी - बात हुई। उन्होंने कहानी के लम्बी होने की बात कही थी। लेकिन जब मैंने कहा कि संक्षिप्त करने से तो बद्सूरत हो जायेगी, तो उन्होंने कहा था-" सो तो है। देखते हैं फिर।" और कहानी छप गयी। पूरी- की-पूरी। बिना किसी काट-छाँट के। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरी कहानी कभी 'हंस' में छपेगी। और छपेगी भी तो इतनी प्रशंसा पायेगी। लेकिन प्रशंसा मिली और बहुत मिली। 40-50 फोन कॉल्स और स एम स किसी भी लेखक- वो भी नवोदित- के लिये निश्चित रूप से बड़ी बात है।<br />
किसी ने पूछा था-' जब तुम घर- गृहस्थी के झंझटों से मुक्त हो जाओगी तब क्या करोगी ?' और मैंने कहा था-' जब तक हाथ चलेगा प्रेसक्रिप्शन लिखूंगी और जब तक दिमाग चलेगा कहानियाँ लिखूंगी।' मुझे लगता है मैंने मृत्यु तक जिन्दा रहने का रास्ता ढूढ लिया है। आज बस इतना ही। <br />
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अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-70547111704433375872010-12-11T17:58:00.000+05:302010-12-11T18:00:08.508+05:30अधूरी कवितासोचा था मैंने<br />लिखूंगी मैं भी<br />धधकती किसी घटना पर<br />सुलगती-सुलगाती<br />कोई कविता।<br /><br />सामने था अखबार<br />सुर्खियों में छपा था<br />अपने पचहत्तर सैनिकों की<br />हत्या का समाचार।<br /><br />भर आईं आंखें<br />कलम उठाने से पहले<br />जुड़ गये हाथ<br />प्रार्थना में<br />मिले उनकी आत्मा को<br />शांति<br />धैर्य मिले उनके परिजनों को।<br />पर जाने कैसे<br />बदल गये प्रार्थना के शब्द<br />शहर से दूर पोस्टेड<br />पति की मंगलकामना के लिए।<br /><br />हर बार यही हो जाता है<br />मिलते हैं ट्रेन में बम<br />उड़ाई जाती हैं पटरियां<br />और इसके पहले कि<br />बिखरी हुई लाशों की पीड़ा<br />घायलों की चीखें<br />मथकर कलेजे को<br />ले सके शब्दों का<br />आकार,<br />उड़ जाती है<br />मेरी आंखों से नींद!<br />चढ़ चुका होगा मेरा बेटा<br />ऐसी ही किसी ट्रेन में<br />घर आने के लिए<br /><br />कल ही हुआ था<br />स्कूल जा रहे बच्चे को<br />खींच ले गये थे<br />अपहरणकर्ता।<br />भीग गया मन<br />सोचकर<br />कैसे जी रही होगी उसकी मां<br />क्या-क्या मान रही होगी<br />मन्नतें,<br />जाने कहां-कहां टेक रही होगी<br />अपना माथा<br /><br />लेकिन इसके पहले कि<br />डूब पाती मैं<br />उसकी पीड़ा में<br />घड़ी की सूइयों ने<br />बताया<br />कि देर हो रही है बाबू को<br />स्कूल से लौटने में।<br />रखकर हाथ की कलम<br />धाड़-धाड़ बजते कलेजे के साथ<br />मैं निकल आई<br />दरवाजे पर।<br /><br />हर बार सोचती हूं<br />इस बार लिखूंगी<br />कुछ चुभता सा।<br />लेकिन हर बार रह जाती हूं<br />अपने ही भय की कीरचों से<br />बिंध कर।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-3125066030307979632010-11-07T17:41:00.002+05:302010-11-07T17:59:05.175+05:30जिंदगी का कटोराबीत रहे हैं दिन<br />लिए हुए हाथों में कटोरा<br />भीख मांगते हुए जिंदगी से,<br />जिंदगी की!<br />रोज देखती हूँ कटोरे को<br />उलट कर , पलट कर,<br />सीधा कर, झुका कर।<br />कोई बूँद है क्या इसमें,<br />किसी रस की?<br />ना, सूखा है, रीता है,<br />जाने कब से<br />ऐसे ही पड़ा है।<br />साथ ले चलो,<br />चल पड़ेगा,<br />रख दो उठा कर कहीं,<br />पड़ा रहेगा।<br />फेंक दो,<br />झंनाता रहेगा थोड़ी देर<br />फिर स्थिर हो जायेगा।<br />धूप में तप जाता है<br />ठंढ में डंक मारता है<br />जिंदगी का कटोरा<br />यूं ही साथ चलता रहता है।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-87059482170821307102010-09-05T12:37:00.011+05:302010-09-10T11:47:25.918+05:30लड़की जो नहीं मिलीकभी हुआ करती थी/ कहीं एक लड़की/<br />एक छोटे से घर की/ बड़ी सी राजकुमारी/<br />आँखों में लिए हुए सपने/ सीने में भरे हुए/<br />उमंग और हौसला/ कर रही थी कोशिश/<br />अपनी संभावनाओं को/ संभव बनाने की/<br /><span></span><span></span><span></span>कोई शिकायत नहीं थी/ कि/<br />सर पर कितनी तीखी है घूप/ या/ पैरों के नींचे/<br />कितने पथरीले हैं रास्ते/<br />थी सिर्फ एक चाहत/ <span>जिंदगी</span> <span>को</span> <span>जियूं</span>/<br /><span></span> अपनी शर्तों पर/अपने मूल्यों पर/<br />जाने किधर से आया/ समय का पहिया/<br />हँसता हुआ/ उसके उमंग और हौसलों पर/<br />ढकता चला गया उसे/ परिस्थियों के गर्दो गुबार में/<br />गुबार के छटने पर/पीछे जो रह गयी/वह थी/<br />समय के पहिये के नींचे/ कुचली हुई/<br />सहमें कन्धों और/ झुके हुए सर वाली/<br />एक औरत/ देती रही देर तक/ आवाजें/<br />आ मिल जा री/ ओ लड़की/<br />तूं तो प्राण थी मेरा/ रह गयी हूँ मैं/<br />तेरे बिना/ सिर्फ एक शरीर हो कर/<br />ढूढती रही उसे वो/ पागलों की तरह/<br />चावल की बोरियों के पीछे/<br />आटे के कनस्तरों के नीचे/<br />धोबी की बही में/ राशन की लिस्ट में/<br />अगरबत्ती के धुएं में/ बिस्तर पर फैले/ पुरुष की बाहों में/<br />गोद में सोये/ शिशु की आखों में/ नहीं मिली वो/<br /> कहीं नहीं मिली/अब भी प्रतीक्षा/ कर रही है उसकी/<br />उम्र के किसी मोड़ पर/ कभी तो मिल जाये/ कहीं/<br />एक बार लिपट कर/ उसके गले से/<br />रो तो ले/ जी भर के।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-89705229342481423132010-07-01T12:20:00.002+05:302010-07-01T12:48:52.283+05:30मन का कोनाथोडा और मर गया<br />मन का वह कोना<br />जो शेष रहता आया है<br />अब तक तुम्हारे <span>लिए।<br /></span>जाने कितने उलाहनों<br />अनगिनत तानों से<br />बार-बार छलनी होता हुया,<br />मरने लगा है<br />आहिस्ता-आहिस्ता।<br />मैनें भी छोड़ दिया है डालना,<br />आशाओं का खाद<br />आसुंओं का पानी।<br />मरता है ,<br />मर जाये।<br />क्या फर्क पड़ता है!<br />शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,<br />जिन्दा रहेगा।<br />यूँही उठता बैठता रहेगा<br />तुम्हारी भावों के इशारों पर,<br />निभाता रहेगा<br />यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।<br />फिर भी नहीं उतर पायेगा<br />तुम्हारे एहसानों का कर्ज।<br />बड़ी इच्छा है,<br />चिता पर चढ़ने से पहले भी<br />पूछ सकूँ तुमसे<br />क्या मेरी जिंदगी भर की<br />सेवाओं का<br />कोई मोल है तुम्हारे पास?<br />क्या जुटा सकुंगी<br />उस वक्त भी ,<br />इतना साहस?अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-17524032003824684642010-05-17T12:08:00.003+05:302010-05-17T12:59:52.581+05:30तेरा कमराथोड़ी देर बैठूं<br />तेरे सूने कमरे में,<br />थोड़ा और गहरा कर लूं<br />तेरे चले जाने का<br />एहसास !<br />कि जब तूं होता है<span> </span><br />यह कमरा भी<br />बातें करता है।<br />तेरी ढेर सारी<br />ऐली- फैली चीजों को<br />अपने में समाये<br />थोड़ा झुंझलाता हुआ<br />पर खुश दिखता है।<br />इतराता है<br />अपने आप पर-<br />उसे पता है<br />कि विशिष्ट है वह थोड़ा<br />घर के शेष हिस्से से,<br />कि उसमें रहने वाले<br />चहरे के जगमग से<br />जगमगा रही हैं<br />पिता कि आशाएं,<br />और जिसकी आँखों में<br />तैरते सपनों में<br />देखती है माँ<br />अपने हिस्से का आकाश।<br />और जहाँ एक बच्चा<br />दिन भर डोलता है<br />एक छोटी- सी<br />जादुई दुनिया <span>की </span>तलाश में।<br />अब जबकि तूं<br />नहीं है यहाँ<br />और 'बाबु' ने<br />समेट दिया है<br />इसके बिखरेपन को,<br />हर कोना सजा दिया है<br />बड़े यत्न से ,<br />बड़ी तरतीब से,<br />कितना अकेला हो गया है<br />यह कमरा!<br />चुप है, उदास है, बोझिल है!<br />नहीं , जरा भी नहीं चौंका है<br />मेरे आने से।<br />बस, डूबा है अपने सूनेपन में!<br />मेरी तरह उसे भी<br />प्रतीक्षा है<br />तेरे फिर आने की।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-81844607756552218162010-03-31T19:24:00.003+05:302010-04-03T12:51:41.774+05:30जख्म और संवेदनाआदत रही है<br />खुद पर लगे <span>जख्मों </span>को<br />जानवरों की तरह<br />चाट-<span>चूट </span>कर<br />खुद ही ठीक कर लेने की!<br />लेकिन इस बार जख्म<br />पीठ पर है।<br />ना कोई सहलाता हुआ<br />स्पर्श है,<br />ना कोई मरहम।<br />बार-बार उठ रही है टीस ,<br />दर्द की लहरें<br />झकझोर रही हैं<br />पूरे शरीर को।<br />क्या करू?<br />छोड़ दूं खुला?<br />सड़ जाने दूं?<br />फ़ैलने दूं जहर<br />पूरे शरीर में?<br />या प्रतीक्षा करूँ<br />खुद ही सूख जाने की<br />वक्त के साथ<br />धीरे- धीरे।<br />बन जाने दूं<br />घाव को नासूर?<br />फिर आदत <span>पड़ </span>जाएगी<br />इस दर्द के साथ<br />जीने की!<br />हाँ पता है,<br />मर जाएगी संवेदना<br />वहाँ पर की।<br />ठीक ही तो है,<br />ऐसे भी जरुरी है<br />जीने के लिए ,<br />संवेदनाओं का<br />मर जाना।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-51194165170013642322010-03-07T18:55:00.004+05:302010-03-08T19:15:08.452+05:30दीवार पर टंगा कलैंडरदीवार पर टंगा कलैंडर<br />बदलती रहा है तारीखें<br />टंगी रह गयी है<br />तस्वीर!<br />भले ही टांगने वाले ने<br />टांगा था उसे<br />अपनी <span>दीवार </span>पर<br />मुग्ध होकर<br />उसकी सुन्दरता पर,<br />रीझ कर उसके<br />ख़ूबसूरत रंगों पर,<br />घंटों सामने खड़ा<br />निहारा भी करता था<br />उसकी नैसर्गिगता को!<br />पर धीरे-धीरे<br />तस्वीर कलैंडर हो गयी।<br />हो गयी धुंधली,<br />ढक गयी<br />समय की धूल के नींचे<br />कोई पोंछ दे हौले से<br />उस गर्द को,<br />अपनी उंगलिओं से<br />चमक उठेगी तस्वीर<br />मुस्कुराने लगेंगे<br />उसके रंग।<br />पर किसे फुरसत है इतनी?<br />किसे है इतनी परवाह?<br />अब सिर्फ काम आती है,<br />तारीखें देखने के,<br />जाड़ा-गर्मी-बरसात,<br />टंगी रहती है यूं ही।<br />कहीं नहीं जाती है,<br />कभी नहीं जाती है।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-89682363921688117492010-01-31T20:10:00.004+05:302010-01-31T20:39:57.506+05:30कठपुतलीमेरे मालिक ,<br />लो मैं फिर प्रस्तुत हूँ<br />नाचने के लिए<br />तुम्हारे इशारों पर!<br />बहुत <span>चाहा </span>था मैंने,<br />झटक डालूँ<br />उन धागों को<br />जो बांधे हैं तुमने<br />मेरे हाथो से, पैरो से।<br />रच लूं एक नया आकाश<br />और खो जाऊं<br />उसकी निस्सीमता में!<br />लेकिन मेरे मालिक<br />मैं कहाँ से लाती<br />इतनी सामर्थ्य<br />वर्षो से अपाहिज बने<br />अपने हाथो में।<br />देखो, किस तरह लहूलुहान<br />अपने टूटे पंखो के साथ<br />पड़ी हूँ<br />इस पथरीली<br />रेतीली <span>जमीन </span>पर<br />भीख मांगती तुम्हारी दया की।<br />हाँ मेरे मालिक<br />स्वीकार कर लिया है मैंने<br />कि तुम नियंता हो मेरे<br />और मैं<br />कठपुतली तुम्हारी।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-67627598885058141982009-12-08T20:45:00.002+05:302009-12-08T21:01:28.058+05:30मरहम<span class="">'देखो ना </span><br /><span class="">फ़िर जल गया हाथ </span><br /><span class="">छू गया गर्म तवे से' </span><br /><span class="">'नाश्ता मिलने में देर है </span><br /><span class="">अभी लगता है' </span><br /><span class="">'लगा रही हूँ,</span><br /><span class="">बस पाँच मिनट और। </span><br /><span class="">देर से लौटोगे </span><br /><span class="">क्या आज?'</span><br /><span class="">'ओह, </span><br /><span class="">मोज़े कहाँ चले गए मेरे!' </span><br /><span class="">'वे रहे,</span><br /><span class="">पड़े हैं जूतों के अन्दर।</span><br /><span class="">थोड़ा लौटते सवेरे </span><br /><span class="">तो निकलते कहीं हम </span><br /><span class="">कितना वक्त हो गया </span><br /><span class="">कहीं निकले हुए।'</span><br /><span class="">'अब कहाँ चली गई </span><br /><span class="">ये फाईल भी?'</span><br /><span class="">'ये रही, </span><br /><span class="">पड़ी थी टेबल पर।</span><br /><span class="">आ सकोगे </span><br /><span class="">थोड़ा पहले क्या?</span><br /><span class="">'लगा लो दरवाजा। </span><br /><span class="">हाँ, मत इंतजार करना </span><br /><span class="">दुपहर के खाने पर मेरा,</span><br /><span class="">मैं खा लूँगा कुछ </span><br /><span class="">उधर ही।'</span><br /><span class="">'अच्छा, लेकिन हो सके तो </span><br /><span class="">कर देना एक फोन।' </span><br /><span class="">'ठीक, बंद कर लो।'</span><br /><span class="">चलूँ, समेटूं घर के </span><br /><span class="">काम को।</span><br /><span class="">अरे, पहले लगा लूँ </span><br /><span class="">इस जले पर</span><br /><span class="">कोई मरहम। </span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-57608149779006330792009-08-19T21:00:00.002+05:302009-08-19T21:20:09.459+05:30एक शाममुझे याद है वो शाम,<br /><span class="">जब शाम का धुंधलका </span><br /><span class="">खिड़की के बाहर</span><br /><span class="">धीरे धीरे फ़ैल रहा था और </span><br /><span class="">आकाश से कुहासे बरस रहे थे। </span><br /><span class="">तुम बिस्तर पर लेटे थे </span><br /><span class="">और मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी। </span><br /><span class="">जाने कब बाहर फ़ैल रहा धुंधलका </span><br /><span class="">तुम्हारे चहरे पर उतर आया, </span><br /><span class="">और कमरे के गहराते अंधेरे में मैंने </span><br /><span class="">तुम्हारी लम्बी पलकों पर </span><br /><span class="">कुहासे की बुँदे देखी। </span><br /><span class="">अनायास ही मेरे हाथ उठे ,</span><br /><span class="">मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।</span><br /><span class="">लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था</span><br /><span class="">और मेरी बाहें छोटी। </span><br /><span class="">तुमने सर नहीं झुकाया, </span><br /><span class="">और मैं?</span><br /><span class="">मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी। </span><br /><span class=""> --तब की, जब मैं अठारह साल की थी। </span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-86414840635954843412009-07-28T14:16:00.004+05:302009-07-28T15:28:05.870+05:30इंशा अल्लाह मेरे बेटेउसने बताया मुझे<br />क्लास की<br />सबसे सुंदर लड़की ने<br />किया है उसे 'प्रपोज'!<br /><span class="">मैंने हंस कर कहा ,</span><br /><span class="">स्वागत है उसका </span><br /><span class="">हमारे परिवार में। </span><br /><span class="">वह बोला ,</span><br /><span class="">मुझे नहीं चाहिए </span><br /><span class="">दीवार पर टांगने के लिए </span><br /><span class="">कलैंडर ,</span><br /><span class="">मुझे चाहिए </span><br />कंप्यूटर,<br /><span class="">जिस पर बना सकूँ मैं</span><br /><span class="">रोज नए प्रोग्राम। </span><br /><span class="">मैंने हंस कर कहा, </span><br /><span class="">क्या करेगा </span><br /><span class="">दिमाग वाली लड़की ?</span><br /><span class="">गृहस्थी के लिए </span><br /><span class="">ठीक रहती हैं </span><br /><span class="">कम दिमाग वाली </span><br /><span class="">सुन्दर लड़कियां। </span><br /><span class="">वह बोला </span><br /><span class="">नहीं चाहिए मुझे </span><br /><span class="">हर बात पर </span><br /><span class="">'जैसी आपकी इच्छा ',</span><br /><span class="">कहने वाली। </span><br /><span class="">मुझे चाहिए वो </span><br /><span class="">जो दे सके मुझे </span><br /><span class="">सही और ग़लत का </span><br /><span class="">निर्णय कर के। </span><br /><span class="">मैंने पूछा </span><br /><span class="">नौकरी करेगी वो?</span><br /><span class="">हाँ माँ, </span><br /><span class="">उसके होंगे ढेर सारे अधीनस्थ?</span><br /><span class="">हाँ माँ, </span><br /><span class="">उसका दिमाग होगा बाहर </span><br /><span class="">लेकिन दिल होगा </span><br /><span class="">घर में ?</span><br /><span class="">हाँ माँ ,</span><br /><span class="">बाँध कर रखेगी </span><br /><span class="">पूरे परिवार को </span><br /><span class="">अपनी बाहों में?</span><br /><span class="">हाँ माँ ,</span><br /><span class="">उसका चेहरा चमकेगा </span><br /><span class="">स्वाभिमान की चमक से?</span><br /><span class="">हां माँ,</span><br /><span class="">वह 'ना' कह सकेगी तुझे </span><br /><span class="">तेरी किसी बात के लिए?</span><br /><span class="">हां माँ। </span><br /><span class="">मैंने खुश हो कर कहा , </span><br /><span class="">फ़िर मैं बनाउंगी </span><br /><span class="">उसके लिए भी खाना </span><br /><span class="">उसकी पसंद का। </span><br /><span class="">वह हंस कर बोला </span><br /><span class="">'कुक ' रख लेंगे माँ। </span><br /><span class="">इंशा अल्लाह मेरे बेटे!</span><br /><span class=""></span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-40779985330614572632009-07-07T13:12:00.002+05:302009-07-07T13:35:58.253+05:30कैसी हो तुम अबउसे करनी होती हैं<br />बहुत सारी बातें<br />वह जब भी फोन करता है मुझे।<br />क्लास में मिले<br />किसी अच्छे कमेन्ट की,<br />ईर्ष्या से भरे<br />दोस्तों की प्रशंसाओं की,<br />कंधे पर टिके सर के<br />रेशमी बालों से<br />उठती खुशबुओं की,<br />अपनी महत्वाकांक्षाओं की,<br />बनते बिगड़ते योजनाओं की।<br />मैं चुप हो कर सुनती हूँ<br />आकाश में उड़ने को आतुर<br />उसके पंखों की आहटें ,<br />आशीषें देती हुई<br />हंसती रहती हूँ ,<br />उसकी बातों पर।<br />लेकिन शायद वह सुन लेता है<br />हँसी में दबी<br />मेरे अकेले पन की गूंज को,<br />आहिस्ता से उतर आता है<br />धरती पर ,<br />और पूछता है मुझसे ,<br /> कैसी हो तुम अब?अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-55124133481613657202009-06-14T14:32:00.002+05:302009-06-14T14:57:40.600+05:30देह राग से परेछुट्टी का एक दिन<br />मेरे साथ भी बिताओ जी!<br /><span class="">नहीं, ऐसे नहीं। </span><br /><span class="">देह राग से परे </span><br /><span class="">सुनते हैं आज </span><br /><span class="">कोई नया राग। </span><br /><span class="">अच्छा, नहीं आता </span><br /><span class="">तुम्हारी समझ में </span><br /><span class="">ऐसा कुछ?</span><br /><span class="">ठीक, चलो देख आते हैं </span><br /><span class="">शहर की रौनक। </span><br /><span class="">तुम्हे पसंद नहीं भीड़- भाड़?</span><br /><span class="">मुझे भी कहाँ पसंद है। </span><br /><span class="">चलो ,चलते हैं </span><br /><span class="">किसी सूनी सड़क पर</span><br /><span class="">जहाँ बिछे होंगे </span><br /><span class="">पलाश के फूलों के लाल गलीचे। </span><br /><span class="">मत करना दफ्तर की बातें </span><br /><span class="">बच्चों के भविष्य की बातें भी नहीं</span><br /><span class="">कुछ कहना तुम </span><br /><span class="">अपने मन की,</span><br /><span class="">कुछ कह लूंगी </span><br /><span class="">मैं अपने दिल की। </span><br /><span class="">अच्छा, नहीं बची है अब </span><br /><span class="">तुम्हारे पास कोई बात </span><br /><span class="">और सुन चुके हो मेरी भी बहुत!</span><br /><span class="">चलो ठीक है, </span><br /><span class="">कुछ नहीं बोलेंगे हम,</span><br /><span class="">बस, चलते रहंगे </span><br /><span class="">एक दूसरे का हाथ पकडे </span><br /><span class="">और सुनेंगे, </span><br /><span class="">गिरते पत्तों की ताल पर </span><br /><span class="">बहती हवाओं का संगीत! </span><br /><span class="">क्या कहा तुमने? </span><br /><span class="">जब चुप ही रहना है </span><br /><span class="">तो क्या बुरा है घर? </span><br /><span class="">ठीक है फ़िर </span><br /><span class="">तुम खोल लो टी वी </span><br /><span class="">और मैं खोल लेती हूँ </span><br /><span class="">फ़िर से आज का अखबार। </span><br /><span class="">दिन ही तो काटने हैं, </span><br /><span class="">कट जायेंगे!</span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com15tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-72278664536834575182009-05-10T20:11:00.002+05:302009-05-10T20:33:16.621+05:30आईने से बाहरकिसी दिन<br />आईने से बाहर निकल<br />मेरे चेहरे,<br /><span class="">घूम आ कहीं </span><br /><span class="">सडकों, गलियों, चौराहों पर।</span><br /><span class="">फैला कर अपने नथुनों को </span><br /><span class="">भर ले ढेर सारी ताजा हवा, </span><br /><span class="">अपने फेफडों में, </span><br /><span class="">और सोंच ले </span><br /><span class="">कि अब चुप नहीं रह जाएगा </span><br /><span class="">हर बात पर </span><br /><span class="">लम्बी साँसें खींच कर। </span><br /><span class="">नोच कर फेंक दे </span><br /><span class="">अपने होठों पर </span><br /><span class="">ताले कि तरह जड़ी</span><br /><span class="">इस मुस्कान को </span><br /><span class="">और वो बोल </span><br /><span class="">जो रुका है अर्से से </span><br /><span class="">तेरी जुबान पर। </span><br /><span class="">यह दिखा,</span><br /><span class="">देखने वालों को </span><br /><span class="">कि समझौतों के नाम पर </span><br /><span class="">और पलकें नहीं झुकायेगा तूं , </span><br /><span class="">कि खीचने आते हैं </span><br /><span class="">तुझे भी </span><br /><span class="">भौहों के धनुष। </span><br /><span class="">और मेरे चेहरे </span><br /><span class="">यह तय कर ले </span><br /><span class="">कि अब तेरा सर </span><br /><span class="">टिका रहेगा </span><br /><span class="">तेरे ख़ुद के कन्धों पर, </span><br /><span class="">कि अब जीने के लिए </span><br /><span class="">किसी और के कन्धों की भीख </span><br /><span class="">नहीं मांगेगा तूं। </span><br /><span class="">किसी दिन आईने से बाहर </span><br /><span class="">निकल मेरे चेहरे, </span><br /><span class="">किसी दिन बाहर निकल। </span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-30753400890424293802009-05-04T13:13:00.004+05:302009-05-07T01:26:33.295+05:30हैपी बर्थ डे भाई<div style="text-align: justify;">आज 6 मई है। <a href="http://anuraganveshi.blogspot.com/" target="_blank">अनुराग</a> का जन्मदिन। जबसे वह मुझे दुबारा मिला है, मैं उसे हर बार विश करती हूं; इस विश्वास के साथ कि उसे इसकी प्रतीक्षा होगी।<br /><br />उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।<br /><br />इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।<br /><br />मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।<br /><br />वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।<br /><br />हैपी बर्थ डे भाई।<br /><br />पुनश्च -<br />कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!<br /></div>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-87246387996422026872009-04-26T20:26:00.001+05:302009-04-26T20:41:50.626+05:30लौट आई हूँ मैंबादलों पर चलने और<br />चाँदनी में नहाने दिन<br />नहीं रहे अब मेरे।<br />क्योंकि चाँद की दुनिया से<br />लौट आई हूँ मैं।<br />बालों को उलझाती<br />पागल हवाओं नें<br />साथ उड़ चलने का निमंत्रण<br />वापस ले लिया है।<br /><span class="">बारिश का पानी भी अब </span><br /><span class="">कतरा कर निकालने लगा है मुझसे </span><br /><span class="">क्योंकि उसे भी पता है </span><br /><span class="">कि इसके पहले कि उसकी छुअन</span><br /><span class="">मेरे प्राणों तक पहुंचे </span><br /><span class="">मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को। </span><br /><span class="">ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,</span><br /><span class=""> हैरत में हैं </span><br /><span class="">ये देख कर </span><br /><span class="">कि मैंने तलाश शुरू कर दी है </span><br /><span class="">अपने पैरों के नींचे की जमीन की </span><br /><span class="">और लौट आई हूँ </span><br /><span class="">चाँद की दुनिया से। </span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-69511791706046000862009-04-17T22:52:00.002+05:302009-04-17T23:34:42.421+05:30बात जो अटक गई<span class=""> पिछले</span> मार्च महीने में २५ तारीख के 'इंडिया टुडे ' का एक अंक आया 'इंडिया टुडे कान्क्लेभ'। मुख्यत: आंतंकवाद पर केंद्रित इस अंक में 'दलाई लामा' से लेकर पकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति 'परवेज मुशर्रफ ' से ले कर 'शाहरुख़ खान' तक के विचार छपे हैं। इन सभी भाषणों में जिन दो भाषणों ने मुझे सर्वाधिक आकृष्ट किया,वे हैं 'दलाई लामा' और 'मौलाना महमूद मदनी' के।<br /> मैं कोई विचारक या आलोचक नहीं हूँ। बस एक सामान्य मनुष्य की तरह अच्छे और बुरे को देखती हूँ। इसलिए बस इतना ही कह सकती हूँ कि 'दलाई लामा' को पढ़ना सुख और शान्ति के बीच से गुजरने जैसा था। उनके भाषण के अन्तिम अंश के वाक्यों में एक वाक्य -"आप धार्मिक सहिष्णुता और अहिंसा के अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को अपनाएं"-मेरे विचार से अभी की परस्थिति की सबसे बड़ी आवश्यकता है।<br /> 'मौलाना महमूद मदनी' साहब का भाषण बहुत प्रभावित करता है। यह दिमाग की धुंध साफ़ करने जैसा है। लेकिन उनके भाषण में जो बात मुझे अटक गई वो थी -"मुझसे पूछा जाता है कि मैं इस्लाम से मुहब्बत करता हूँ या इस मुल्क से ? यह एक कठिन सवाल है। अगर मैं कहता हूँ इस्लाम से तो वे मुझे राष्ट्रभक्त नहीं मानेंगे। मुझे हमेशा ही इस्लाम या भारत के प्रति अपनी वफादारी साबित कराने के लिए कहा जाता है। अब मैं कहता हूँ कि मेरी दो आँखे हैं और आप हमें बताएं कि किसे रखूं और किसे फेंक दूँ। लेकिन मैं अपने महजब को प्राथमिकता दूंगा जिसने मेरे अन्दर अपने मादरे वतन की रक्षा के लिए जिंदगी कुर्बान करने का जज्बा दिया ......."।<br /> मैं 'मौलाना मदनी' साहब के विचारों का अत्यन्त आदर करते हुए अपनी तरफ़ से एक बात कहना चाहती हूँ-अगर कोई मुझे दो विकल्प दे, तुम हिंदू रहो लेकिन तुम्हें भारत छोड़ कर किसी और देश में में बस जाना होगा, या , तुम्हें भारत में रहने के लिए कोई दूसरा धर्म स्वीकार करना होगा, तो मैं निश्चित रूप से दूसरा विकल्प स्वीकार कर लुंगी। क्योकि मेरे लिए मेरा देश नि:संदेह मेरे धर्म से बड़ा है। इस विषय में मेरे इक ही आँख है ,वो है 'हिंदुस्तान'।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-3247903860143403552009-04-07T13:03:00.003+05:302009-04-07T13:20:48.284+05:30एक काली लकीरसोंधा-सोंधा महकता है बाबु<br />जब लौटता है खेलकर<br />धूल मिटटी और<br />पसीने में नहाकर।<br />डाल कर अपनी बाहें<br />मेरे गले में<br />झूल जाता है<br />आम के पेड़ में झूलते<br />टिकोले की तरह।<br /><span class="">रगड़ता है अपने गाल </span><br /><span class="">मेरी बांह से, </span><br /><span class="">दिखाता है अपने छिले हुए घुटने।</span><br /><span class="">दर्द कम हो कुछ उसका,</span><br /><span class="">मैं चूम लेती हूँ उसका मुंह </span><br /><span class="">और ठिठक जाती हूँ।</span><br /><span class="">बस, कुछ दिन और, </span><br /><span class="">फ़िर रुई की तरह नर्म </span><br /><span class="">इस होंठ पे ,</span><br /><span class="">उभर आएगी</span><br /><span class="">एक काली लकीर, </span><br /><span class="">जो धीरे-धीरे फैलती चली जायेगी </span><br /><span class=""><span class="">मेरे और उसके बीच में। </span> </span><br /><span class=""></span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-67285370900119617952009-04-01T19:02:00.005+05:302009-04-02T12:25:36.588+05:30कुछ क्षणिकाएं(१)<br /><br />लगा था कि<br /><span class="">अंजलि भर <span class="">गई, </span></span><br /><span class="">कब तक ठहरता ?</span><br /><span class="">पानी ही तो <span class="">था, </span></span><br /><span class="">बह <span class="">गया। </span></span><br /><br /><span class="">(२)</span><br /><br /><span class="">मेरा हाथ माँगते हुए </span><br /><span class="">तुमने कहा था, </span><br /><span class="">बदल दूंगा इनकी <span class="">लकीरें। </span></span><br /><span class="">तुम्हारे हाथ में </span><br /><span class="">अपनी हथेलियाँ </span><br /><span class="">सौंपने के बाद लगा </span><br /><span class="">तुममें रेखाओं को </span><br /><span class="">बदलने की </span><br /><span class="">इच्छा तो थी </span><br /><span class="">चेष्टा नहीं</span><br /><br /><span class="">(३)</span><br /><br /><span class="">अब पीठ को घेरती </span><br /><span class="">बांह नहीं होती </span><br /><span class="">जिंदगी धरातल पर </span><br /><span class="">उतर आई है, </span><br /><span class="">बिन <span class="">बोले </span>ही </span><br /><span class="">तय होने लगे हैं रास्ते ,</span><br /><span class="">गृहस्ती चल निकली <span class="">है। </span></span><br /><br /><span class="">(४)</span><br /><br /><span class="">जाने क्यों </span><br /><span class="">अपना चेहरा </span><br /><span class="">बदरंग नजर आने लगा है, </span><br /><span class="">तुम्हारी आखों के दर्पण </span><br /><span class="">धुंधलाने लगे हैं शायद। </span><br /><br /><span class=""></span>----कुछ पुरानी रचनाएँ<br /><br /><br /><span class=""></span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-35894117419651081492009-03-23T02:54:00.000+05:302009-03-23T02:56:06.957+05:30अनुराग के कहने पर<div align="justify"></div><p align="justify">अनुराग बार बार कहता रहा है -'ब्लाग में कविता के अलावे भी कुछ डाल।' और मैं हमेशा ही कहती रही हूँ -' दिमाग अब केंद्रित न हो पाव हउ ।' कभी किसी क्षण में बिजली की कौंध की तरह कलेजे में उतर आए किसी एहसास को कविता का जामा पहना कर प्रस्तुत करना ज्यादा आसान लगता है मुझे, लेकिन उसी एहसास को किसी विचार की तरह प्रस्तुत करना अब बहुत कठिन लगता है। कभी किसी पढ़े पर, किसी घटना पर कोई दो पंक्ति की कोई प्रतिक्रिया दिमाग में आती भी है, तो उसे पकड़ कर रखने की कोई उपयोगिता भी है - यह विचार भी मन में नहीं आया कभी, और साथ ही - यह प्रतिक्रिया क्या किसी प्रतिक्रिया के योग्य है - विश्वास भी मैं नहीं जुटा पाई कभी। लेकिन अनुराग का कहना है - वही दू लाइन सही, तू पहले लिख तो। </p><p align="justify">सो उसके हिम्मत बंधाने पर पिछले दिनों जो बातें मेरे मन में अटकती रहीं हैं उन्हें शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ-</p><p align="justify">मेरे विचार से किसी तरह की चर्चा के लिए या लिखने के लिए जो विषय सबसे ज्यादा उपयुक्त होता है वह है सामाजिक घटनाक्रम। सामाजिक घटनाक्रम से मेरा तात्पर्य नितांत कालोनी स्तर पर हो रही घटनाएँ ही नहीं , थोड़े बड़े परिप्रेक्ष से भी है। </p><p align="justify">जैसे -पिछले दिनों 'दैनिक जागरण' के अन्तिम पृष्ठ पर छपे एक समाचार ने मेरा ध्यान खींचा था -"मुख्तारन बाई ने शादी रचाई।" </p><p align="justify">समाचार पढ़ने वाले पकिस्तान की मुख्तारन बाई को भूले नहीं होंगे। ये वही मुख्तारन बाई हैं जिन्हें उनके गाँव के पंचायत ने उनके 12 साल के भाई के किसी ऊंची जाति की लड़की से प्रेम के अपराध में सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी। लेकिन मुख्तारन बाई ने अपने आप को टूटने से बचाया और बाद में स्त्रियों के उत्थान के लिए काम और संघर्ष करती रहीं। उन्होंने ही पिछले दिनों अपनी अधेड़ावस्था में विवाह किया। इस समाचार ने मुझे उस व्यक्ति में कुतूहल जगाया जिसने बाई से शादी की। मेरे मन में कई प्रश्न थे - वह व्यक्ति पहले से ही बाल-बच्चेदार है? उसने बाई से शादी क्यों की? क्या वह मुख्तारन बी की जिजीविषा से प्रभावित हुआ या उसने उन पर कोई अहसान किया? या फ़िर यह मुख्तारन बाई की अपनी कोई विवशता थी। और जो दूसरा प्रश्न यह था की क्या वैमनस्य की स्थिति में वह उनके विगत जीवन के उस काले अध्याय के लिए उन्हें कभी कोई उलाहना नहीं देगा?</p><p align="justify">फिलहाल मैं उनके सुखी जीवन की कामना करती हूँ ।</p>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-75238490172459863812009-03-15T20:42:00.002+05:302009-03-15T20:52:28.450+05:30नहीं कोई शिकायत नहींकितने गुमान भरे थे<br />वे दिन<br />जब मुझे था यकीन कि<br /><span class="">बिछा दोगे तुम </span><br /><span class="">अपनी हथेलियाँ </span><br /><span class="">अगर तपती होगी जमीन </span><br /><span class="">मेरे पैरों के नीचे। </span><br /><span class="">लेकिन शायद थक गए थे तुम </span><br /><span class="">मेरा यह विश्वाश </span><br /><span class="">ढोते-ढोते। </span><br /><span class="">कुछ प्राप्य भी तो नहीं था तुम्हें </span><br /><span class="">सिर्फ़ एक विश्वाश का पाथेय </span><br /><span class="">और जिन्दगी भर का सफर </span><br /><span class="">इतना आसान नहीं था सब कुछ। </span><br /><span class="">नहीं, कोई शिकायत नहीं, </span><br /><span class="">दुःख भी नहीं है शायद, </span><br /><span class="">हाँ, लेकिन याद तो </span><br /><span class="">बहुत आती है तुम्हारी </span><br /><span class="">जब तपती है जमीन </span><br /><span class="">मेरे पैरों के नीचे।</span><br /><span class=""></span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-48591407880884059342009-03-06T19:01:00.003+05:302009-03-07T01:46:22.660+05:30कल एक कविता लिखूंगीथके से दरवाजे<br />उबासी लेती हुई खिड़कियां<br />रात भर जागी<br />आंखों की तरह<br />बोझिल दीवारें।<br />रोज सोचती हूँ<br />कल एक कविता लिखूंगी।<br />लेकिन वो कल नहीं आता,<br />आता है केवल<br />नामविहीन<br />तारीखविहीन<br />एक दिन,<br /><span class="">जिसमें होते हैं </span><br /><span class="">सुबह, दोपहर और शाम। </span><br /><span class="">और सुबह, दोपहर, शाम </span><br /><span class="">कोई कविता नहीं होती, </span><br /><span class="">हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में </span><br /><span class="">चुपके से </span><br /><span class="">एक दिन और जुड़ जाता है। </span><br /><span class="">बिस्तर पर लेट कर मैं </span><br /><span class="">दरवाजे के खुलने </span><br /><span class="">और बंद होने में </span><br /><span class="">दिन महीने और सालों को </span><br /><span class="">चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ। </span><br /><span class="">रोज सोचती हूँ </span><br /><span class="">कल एक कविता लिखूंगी!</span><br /><span class="">रोज सोचती हूँ </span><br /><span class="">कल एक कविता लिखूंगी।</span><br /><span class=""></span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-13149336517993751842009-02-24T19:32:00.004+05:302009-02-24T19:41:56.694+05:30एक खाली कपठिठकने लगी है उंगलियाँ अब<br />तुम्हारे नाम से दो शब्द<br />लिखने के बाद।<br /><span class="">रुक जाती हूँ </span><br /><span class="">फोन के बटन दबाते- दबाते। </span><br /><span class="">तुमसे दो बातें कर लेने की इच्छा </span><br /><span class="">लम्बी साँस बन कर </span><br /><span class="">हवा में घुलने लगी है </span><br /><span class="">सामने पड़ा चाय का एक </span><br /><span class="">खाली कप भी </span><br /><span class="">कुछ नहीं कहता,</span><br /><span class="">अब अकले पी लेने की </span><br /><span class="">आदत पड़ गई है। </span>अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-7186087393731957404.post-19276805174732242282009-02-10T19:50:00.005+05:302009-02-14T00:51:35.222+05:30सपने, नदी और भइयाअब नहीं आते हो भइया<br />तुम सपनों में।<br />वे सपने<br />जिनमें मैं फंस जाती थी<br />किसी सूनी सड़क पर,<br />बारिश से नहाये<br />हरे- हरे लंबे पेड़ों<br />और डराते काले बादलों के बीच<br />जब मेरे सामने आ जाती थी<br />एक गहरी नदी<br />और इस पार डरती- कांपती खड़ी मैं<br />सोचती रहती थी कैसे जाऊँ उस पार!<br />और फ़िर<br />जाने कहाँ से<br />तुम आ खड़े होते नदी के उस किनारे,<br />कूद कर नदी में<br />बढ़ाते अपना हाथ<br />और पकड़ कर तुम्हारा हाथ<br />मैं पार कर जाती थी<br />भय की उस नदी को।<br />फ़िर भागते चले जाते हम<br />एक-दूसरे का हाथ पकड़े<br />उस घर को<br />जहाँ माँ कर रही होती थी हमारा इंतजार।<br /><br />सपने में तुम<br />तब भी आते रहे भइया<br />जब तुमने पकड़ा दिया मेरा हाथ<br />एक अजनबी को<br />और विदा करते हुए मुझे<br />कहा अब यही चलेगा तेरे साथ<br />तेरे सपनों में।<br />लेकिन घबराकर<br />उन अजनबी रास्तों के गुंजलक से<br />मैं फ़िर पहुँच जाती<br />सपनों में<br />तुम्हारे पास<br />और पकड़ कर तुम्हारी उंगली<br />अपनी मुट्ठी में<br />निश्चिंत हो लेती<br />सुरक्षा के उस एहसास में।<br />लेकिन जब<br />तुमने मिटा डाले मेरे सारे निशाँ<br />जो देते थे गवाही<br />घर में मेरे होने की,<br />और खींच ली<br />अपनी वो ऊंगली<br />जो बंद थी मेरी मुट्ठी में<br />पारस की तरह।<br /><br />मैं टटोलती रही<br />बहुत दिनों तक<br />अपनी खाली मुट्ठी को<br />और जूझती रही<br />सपनों की उस गहरी नदी से,<br />फ़िर एक दिन देखा<br />ख़ुद ही पहुँच गई हूँ उस किनारे<br />पार कर गई हूँ भय की नदी।<br /><br />सपने तो<br />अब भी आते हैं भइया,<br />लेकिन<br />अब तुम नहीं आते हो<br />सपनों में।अर्चनाhttp://www.blogger.com/profile/13916920569285303890noreply@blogger.com9