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Sunday, January 5, 2014

वापसी

                   तीन वर्षों के बाद एक बार फिर मैं अपने ब्लॉग पर हूँ। काफी लम्बा अर्सा है यह कुछ बदलने के लिये। लेकिन कुछ बदला नहीं। वही एक जैसे दिन-रात, वही एक जैसे सुख-दुख। उम्र के इस मोड़ पर कुछ बदलने की बात भी व्यर्थ ही है शायद। हाँ, जिन्दगी सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा में ना बीते, इसके लिये कुछ प्रयत्न अवश्य किये मैंने।
                    अपनी स्मरणशक्ति और व्यस्तताओं से लड़ते हुये मैंने 'इग्नू' (इन्दिरा गांधी ओपेन यूनिवर्सिटी) से हिन्दी में एम. ए. कर लिया। इतने सालों के बाद पढ़ने के लिये पढ़ना और पढ़ कर याद रखना - सचमुच कठिन था। मैंने 55-56 % से ज्यादा की उम्मीद नहीं की थी, लेकिन जब रिजल्ट 62 % का आया तो सचमुच खुशी हुई थी।
                   कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित हुईं। जिसमें 'परिकथा'-फरवरी 20011 नवलेखन अंक में छपी कहानी ' अनुत्तरित' ने काफी प्रशंसा पायी। और पिछले साल 'हंस' के अक्टूबर अंक में आयी कहानी 'एक मुलाकात के बाद' तो एक उप्लब्धि की तरह आयी। राजेन्द्र यादव जी से फोन पर - पहली और दुर्भाग्य से आखिरी भी - बात हुई। उन्होंने कहानी के लम्बी होने की बात कही थी। लेकिन जब मैंने कहा कि संक्षिप्त करने से तो बद्सूरत हो जायेगी, तो उन्होंने कहा था-" सो तो है। देखते हैं फिर।" और कहानी छप गयी। पूरी- की-पूरी। बिना किसी काट-छाँट के। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मेरी कहानी कभी 'हंस' में छपेगी। और छपेगी भी तो इतनी प्रशंसा पायेगी। लेकिन प्रशंसा मिली और बहुत मिली। 40-50 फोन कॉल्स और स एम स किसी भी लेखक- वो भी नवोदित- के लिये निश्चित रूप से बड़ी बात है।
                  किसी ने पूछा था-' जब तुम घर- गृहस्थी के झंझटों से मुक्त हो जाओगी तब क्या करोगी ?' और मैंने कहा था-' जब तक हाथ चलेगा प्रेसक्रिप्शन लिखूंगी और जब तक दिमाग चलेगा कहानियाँ लिखूंगी।' मुझे लगता है मैंने मृत्यु तक जिन्दा रहने का रास्ता ढूढ लिया है। आज बस इतना ही।    
                          

Saturday, December 11, 2010

अधूरी कविता

सोचा था मैंने
लिखूंगी मैं भी
धधकती किसी घटना पर
सुलगती-सुलगाती
कोई कविता।

सामने था अखबार
सुर्खियों में छपा था
अपने पचहत्तर सैनिकों की
हत्या का समाचार।

भर आईं आंखें
कलम उठाने से पहले
जुड़ गये हाथ
प्रार्थना में
मिले उनकी आत्मा को
शांति
धैर्य मिले उनके परिजनों को।
पर जाने कैसे
बदल गये प्रार्थना के शब्द
शहर से दूर पोस्टेड
पति की मंगलकामना के लिए।

हर बार यही हो जाता है
मिलते हैं ट्रेन में बम
उड़ाई जाती हैं पटरियां
और इसके पहले कि
बिखरी हुई लाशों की पीड़ा
घायलों की चीखें
मथकर कलेजे को
ले सके शब्दों का
आकार,
उड़ जाती है
मेरी आंखों से नींद!
चढ़ चुका होगा मेरा बेटा
ऐसी ही किसी ट्रेन में
घर आने के लिए

कल ही हुआ था
स्कूल जा रहे बच्चे को
खींच ले गये थे
अपहरणकर्ता।
भीग गया मन
सोचकर
कैसे जी रही होगी उसकी मां
क्या-क्या मान रही होगी
मन्नतें,
जाने कहां-कहां टेक रही होगी
अपना माथा

लेकिन इसके पहले कि
डूब पाती मैं
उसकी पीड़ा में
घड़ी की सूइयों ने
बताया
कि देर हो रही है बाबू को
स्कूल से लौटने में।
रखकर हाथ की कलम
धाड़-धाड़ बजते कलेजे के साथ
मैं निकल आई
दरवाजे पर।

हर बार सोचती हूं
इस बार लिखूंगी
कुछ चुभता सा।
लेकिन हर बार रह जाती हूं
अपने ही भय की कीरचों से
बिंध कर।

Sunday, November 7, 2010

जिंदगी का कटोरा

बीत रहे हैं दिन
लिए हुए हाथों में कटोरा
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
रोज देखती हूँ कटोरे को
उलट कर , पलट कर,
सीधा कर, झुका कर।
कोई बूँद है क्या इसमें,
किसी रस की?
ना, सूखा है, रीता है,
जाने कब से
ऐसे ही पड़ा है।
साथ ले चलो,
चल पड़ेगा,
रख दो उठा कर कहीं,
पड़ा रहेगा।
फेंक दो,
झंनाता रहेगा थोड़ी देर
फिर स्थिर हो जायेगा।
धूप में तप जाता है
ठंढ में डंक मारता है
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।

Sunday, September 5, 2010

लड़की जो नहीं मिली

कभी हुआ करती थी/ कहीं एक लड़की/
एक छोटे से घर की/ बड़ी सी राजकुमारी/
आँखों में लिए हुए सपने/ सीने में भरे हुए/
उमंग और हौसला/ कर रही थी कोशिश/
अपनी संभावनाओं को/ संभव बनाने की/
कोई शिकायत नहीं थी/ कि/
सर पर कितनी तीखी है घूप/ या/ पैरों के नींचे/
कितने पथरीले हैं रास्ते/
थी सिर्फ एक चाहत/ जिंदगी को जियूं/
अपनी शर्तों पर/अपने मूल्यों पर/
जाने किधर से आया/ समय का पहिया/
हँसता हुआ/ उसके उमंग और हौसलों पर/
ढकता चला गया उसे/ परिस्थियों के गर्दो गुबार में/
गुबार के छटने पर/पीछे जो रह गयी/वह थी/
समय के पहिये के नींचे/ कुचली हुई/
सहमें कन्धों और/ झुके हुए सर वाली/
एक औरत/ देती रही देर तक/ आवाजें/
आ मिल जा री/ ओ लड़की/
तूं तो प्राण थी मेरा/ रह गयी हूँ मैं/
तेरे बिना/ सिर्फ एक शरीर हो कर/
ढूढती रही उसे वो/ पागलों की तरह/
चावल की बोरियों के पीछे/
आटे के कनस्तरों के नीचे/
धोबी की बही में/ राशन की लिस्ट में/
अगरबत्ती के धुएं में/ बिस्तर पर फैले/ पुरुष की बाहों में/
गोद में सोये/ शिशु की आखों में/ नहीं मिली वो/
कहीं नहीं मिली/अब भी प्रतीक्षा/ कर रही है उसकी/
उम्र के किसी मोड़ पर/ कभी तो मिल जाये/ कहीं/
एक बार लिपट कर/ उसके गले से/
रो तो ले/ जी भर के।

Thursday, July 1, 2010

मन का कोना

थोडा और मर गया
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?

Monday, May 17, 2010

तेरा कमरा

थोड़ी देर बैठूं
तेरे सूने कमरे में,
थोड़ा और गहरा कर लूं
तेरे चले जाने का
एहसास !
कि जब तूं होता है
यह कमरा भी
बातें करता है।
तेरी ढेर सारी
ऐली- फैली चीजों को
अपने में समाये
थोड़ा झुंझलाता हुआ
पर खुश दिखता है।
इतराता है
अपने आप पर-
उसे पता है
कि विशिष्ट है वह थोड़ा
घर के शेष हिस्से से,
कि उसमें रहने वाले
चहरे के जगमग से
जगमगा रही हैं
पिता कि आशाएं,
और जिसकी आँखों में
तैरते सपनों में
देखती है माँ
अपने हिस्से का आकाश।
और जहाँ एक बच्चा
दिन भर डोलता है
एक छोटी- सी
जादुई दुनिया की तलाश में।
अब जबकि तूं
नहीं है यहाँ
और 'बाबु' ने
समेट दिया है
इसके बिखरेपन को,
हर कोना सजा दिया है
बड़े यत्न से ,
बड़ी तरतीब से,
कितना अकेला हो गया है
यह कमरा!
चुप है, उदास है, बोझिल है!
नहीं , जरा भी नहीं चौंका है
मेरे आने से।
बस, डूबा है अपने सूनेपन में!
मेरी तरह उसे भी
प्रतीक्षा है
तेरे फिर आने की।

Wednesday, March 31, 2010

जख्म और संवेदना

आदत रही है
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
बार-बार उठ रही है टीस ,
दर्द की लहरें
झकझोर रही हैं
पूरे शरीर को।
क्या करू?
छोड़ दूं खुला?
सड़ जाने दूं?
फ़ैलने दूं जहर
पूरे शरीर में?
या प्रतीक्षा करूँ
खुद ही सूख जाने की
वक्त के साथ
धीरे- धीरे।
बन जाने दूं
घाव को नासूर?
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की!
हाँ पता है,
मर जाएगी संवेदना
वहाँ पर की।
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना।