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Thursday, July 1, 2010

मन का कोना

थोडा और मर गया
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?