सोचा था मैंने
लिखूंगी मैं भी
धधकती किसी घटना पर
सुलगती-सुलगाती
कोई कविता।
सामने था अखबार
सुर्खियों में छपा था
अपने पचहत्तर सैनिकों की
हत्या का समाचार।
भर आईं आंखें
कलम उठाने से पहले
जुड़ गये हाथ
प्रार्थना में
मिले उनकी आत्मा को
शांति
धैर्य मिले उनके परिजनों को।
पर जाने कैसे
बदल गये प्रार्थना के शब्द
शहर से दूर पोस्टेड
पति की मंगलकामना के लिए।
हर बार यही हो जाता है
मिलते हैं ट्रेन में बम
उड़ाई जाती हैं पटरियां
और इसके पहले कि
बिखरी हुई लाशों की पीड़ा
घायलों की चीखें
मथकर कलेजे को
ले सके शब्दों का
आकार,
उड़ जाती है
मेरी आंखों से नींद!
चढ़ चुका होगा मेरा बेटा
ऐसी ही किसी ट्रेन में
घर आने के लिए
कल ही हुआ था
स्कूल जा रहे बच्चे को
खींच ले गये थे
अपहरणकर्ता।
भीग गया मन
सोचकर
कैसे जी रही होगी उसकी मां
क्या-क्या मान रही होगी
मन्नतें,
जाने कहां-कहां टेक रही होगी
अपना माथा
लेकिन इसके पहले कि
डूब पाती मैं
उसकी पीड़ा में
घड़ी की सूइयों ने
बताया
कि देर हो रही है बाबू को
स्कूल से लौटने में।
रखकर हाथ की कलम
धाड़-धाड़ बजते कलेजे के साथ
मैं निकल आई
दरवाजे पर।
हर बार सोचती हूं
इस बार लिखूंगी
कुछ चुभता सा।
लेकिन हर बार रह जाती हूं
अपने ही भय की कीरचों से
बिंध कर।
Saturday, December 11, 2010
Sunday, November 7, 2010
जिंदगी का कटोरा
बीत रहे हैं दिन
लिए हुए हाथों में कटोरा
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
रोज देखती हूँ कटोरे को
उलट कर , पलट कर,
सीधा कर, झुका कर।
कोई बूँद है क्या इसमें,
किसी रस की?
ना, सूखा है, रीता है,
जाने कब से
ऐसे ही पड़ा है।
साथ ले चलो,
चल पड़ेगा,
रख दो उठा कर कहीं,
पड़ा रहेगा।
फेंक दो,
झंनाता रहेगा थोड़ी देर
फिर स्थिर हो जायेगा।
धूप में तप जाता है
ठंढ में डंक मारता है
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।
लिए हुए हाथों में कटोरा
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
रोज देखती हूँ कटोरे को
उलट कर , पलट कर,
सीधा कर, झुका कर।
कोई बूँद है क्या इसमें,
किसी रस की?
ना, सूखा है, रीता है,
जाने कब से
ऐसे ही पड़ा है।
साथ ले चलो,
चल पड़ेगा,
रख दो उठा कर कहीं,
पड़ा रहेगा।
फेंक दो,
झंनाता रहेगा थोड़ी देर
फिर स्थिर हो जायेगा।
धूप में तप जाता है
ठंढ में डंक मारता है
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।
Sunday, September 5, 2010
लड़की जो नहीं मिली
कभी हुआ करती थी/ कहीं एक लड़की/
एक छोटे से घर की/ बड़ी सी राजकुमारी/
आँखों में लिए हुए सपने/ सीने में भरे हुए/
उमंग और हौसला/ कर रही थी कोशिश/
अपनी संभावनाओं को/ संभव बनाने की/
कोई शिकायत नहीं थी/ कि/
सर पर कितनी तीखी है घूप/ या/ पैरों के नींचे/
कितने पथरीले हैं रास्ते/
थी सिर्फ एक चाहत/ जिंदगी को जियूं/
अपनी शर्तों पर/अपने मूल्यों पर/
जाने किधर से आया/ समय का पहिया/
हँसता हुआ/ उसके उमंग और हौसलों पर/
ढकता चला गया उसे/ परिस्थियों के गर्दो गुबार में/
गुबार के छटने पर/पीछे जो रह गयी/वह थी/
समय के पहिये के नींचे/ कुचली हुई/
सहमें कन्धों और/ झुके हुए सर वाली/
एक औरत/ देती रही देर तक/ आवाजें/
आ मिल जा री/ ओ लड़की/
तूं तो प्राण थी मेरा/ रह गयी हूँ मैं/
तेरे बिना/ सिर्फ एक शरीर हो कर/
ढूढती रही उसे वो/ पागलों की तरह/
चावल की बोरियों के पीछे/
आटे के कनस्तरों के नीचे/
धोबी की बही में/ राशन की लिस्ट में/
अगरबत्ती के धुएं में/ बिस्तर पर फैले/ पुरुष की बाहों में/
गोद में सोये/ शिशु की आखों में/ नहीं मिली वो/
कहीं नहीं मिली/अब भी प्रतीक्षा/ कर रही है उसकी/
उम्र के किसी मोड़ पर/ कभी तो मिल जाये/ कहीं/
एक बार लिपट कर/ उसके गले से/
रो तो ले/ जी भर के।
एक छोटे से घर की/ बड़ी सी राजकुमारी/
आँखों में लिए हुए सपने/ सीने में भरे हुए/
उमंग और हौसला/ कर रही थी कोशिश/
अपनी संभावनाओं को/ संभव बनाने की/
कोई शिकायत नहीं थी/ कि/
सर पर कितनी तीखी है घूप/ या/ पैरों के नींचे/
कितने पथरीले हैं रास्ते/
थी सिर्फ एक चाहत/ जिंदगी को जियूं/
अपनी शर्तों पर/अपने मूल्यों पर/
जाने किधर से आया/ समय का पहिया/
हँसता हुआ/ उसके उमंग और हौसलों पर/
ढकता चला गया उसे/ परिस्थियों के गर्दो गुबार में/
गुबार के छटने पर/पीछे जो रह गयी/वह थी/
समय के पहिये के नींचे/ कुचली हुई/
सहमें कन्धों और/ झुके हुए सर वाली/
एक औरत/ देती रही देर तक/ आवाजें/
आ मिल जा री/ ओ लड़की/
तूं तो प्राण थी मेरा/ रह गयी हूँ मैं/
तेरे बिना/ सिर्फ एक शरीर हो कर/
ढूढती रही उसे वो/ पागलों की तरह/
चावल की बोरियों के पीछे/
आटे के कनस्तरों के नीचे/
धोबी की बही में/ राशन की लिस्ट में/
अगरबत्ती के धुएं में/ बिस्तर पर फैले/ पुरुष की बाहों में/
गोद में सोये/ शिशु की आखों में/ नहीं मिली वो/
कहीं नहीं मिली/अब भी प्रतीक्षा/ कर रही है उसकी/
उम्र के किसी मोड़ पर/ कभी तो मिल जाये/ कहीं/
एक बार लिपट कर/ उसके गले से/
रो तो ले/ जी भर के।
Thursday, July 1, 2010
मन का कोना
थोडा और मर गया
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?
Monday, May 17, 2010
तेरा कमरा
थोड़ी देर बैठूं
तेरे सूने कमरे में,
थोड़ा और गहरा कर लूं
तेरे चले जाने का
एहसास !
कि जब तूं होता है
यह कमरा भी
बातें करता है।
तेरी ढेर सारी
ऐली- फैली चीजों को
अपने में समाये
थोड़ा झुंझलाता हुआ
पर खुश दिखता है।
इतराता है
अपने आप पर-
उसे पता है
कि विशिष्ट है वह थोड़ा
घर के शेष हिस्से से,
कि उसमें रहने वाले
चहरे के जगमग से
जगमगा रही हैं
पिता कि आशाएं,
और जिसकी आँखों में
तैरते सपनों में
देखती है माँ
अपने हिस्से का आकाश।
और जहाँ एक बच्चा
दिन भर डोलता है
एक छोटी- सी
जादुई दुनिया की तलाश में।
अब जबकि तूं
नहीं है यहाँ
और 'बाबु' ने
समेट दिया है
इसके बिखरेपन को,
हर कोना सजा दिया है
बड़े यत्न से ,
बड़ी तरतीब से,
कितना अकेला हो गया है
यह कमरा!
चुप है, उदास है, बोझिल है!
नहीं , जरा भी नहीं चौंका है
मेरे आने से।
बस, डूबा है अपने सूनेपन में!
मेरी तरह उसे भी
प्रतीक्षा है
तेरे फिर आने की।
तेरे सूने कमरे में,
थोड़ा और गहरा कर लूं
तेरे चले जाने का
एहसास !
कि जब तूं होता है
यह कमरा भी
बातें करता है।
तेरी ढेर सारी
ऐली- फैली चीजों को
अपने में समाये
थोड़ा झुंझलाता हुआ
पर खुश दिखता है।
इतराता है
अपने आप पर-
उसे पता है
कि विशिष्ट है वह थोड़ा
घर के शेष हिस्से से,
कि उसमें रहने वाले
चहरे के जगमग से
जगमगा रही हैं
पिता कि आशाएं,
और जिसकी आँखों में
तैरते सपनों में
देखती है माँ
अपने हिस्से का आकाश।
और जहाँ एक बच्चा
दिन भर डोलता है
एक छोटी- सी
जादुई दुनिया की तलाश में।
अब जबकि तूं
नहीं है यहाँ
और 'बाबु' ने
समेट दिया है
इसके बिखरेपन को,
हर कोना सजा दिया है
बड़े यत्न से ,
बड़ी तरतीब से,
कितना अकेला हो गया है
यह कमरा!
चुप है, उदास है, बोझिल है!
नहीं , जरा भी नहीं चौंका है
मेरे आने से।
बस, डूबा है अपने सूनेपन में!
मेरी तरह उसे भी
प्रतीक्षा है
तेरे फिर आने की।
Wednesday, March 31, 2010
जख्म और संवेदना
आदत रही है
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
बार-बार उठ रही है टीस ,
दर्द की लहरें
झकझोर रही हैं
पूरे शरीर को।
क्या करू?
छोड़ दूं खुला?
सड़ जाने दूं?
फ़ैलने दूं जहर
पूरे शरीर में?
या प्रतीक्षा करूँ
खुद ही सूख जाने की
वक्त के साथ
धीरे- धीरे।
बन जाने दूं
घाव को नासूर?
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की!
हाँ पता है,
मर जाएगी संवेदना
वहाँ पर की।
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना।
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
बार-बार उठ रही है टीस ,
दर्द की लहरें
झकझोर रही हैं
पूरे शरीर को।
क्या करू?
छोड़ दूं खुला?
सड़ जाने दूं?
फ़ैलने दूं जहर
पूरे शरीर में?
या प्रतीक्षा करूँ
खुद ही सूख जाने की
वक्त के साथ
धीरे- धीरे।
बन जाने दूं
घाव को नासूर?
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की!
हाँ पता है,
मर जाएगी संवेदना
वहाँ पर की।
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना।
Sunday, March 7, 2010
दीवार पर टंगा कलैंडर
दीवार पर टंगा कलैंडर
बदलती रहा है तारीखें
टंगी रह गयी है
तस्वीर!
भले ही टांगने वाले ने
टांगा था उसे
अपनी दीवार पर
मुग्ध होकर
उसकी सुन्दरता पर,
रीझ कर उसके
ख़ूबसूरत रंगों पर,
घंटों सामने खड़ा
निहारा भी करता था
उसकी नैसर्गिगता को!
पर धीरे-धीरे
तस्वीर कलैंडर हो गयी।
हो गयी धुंधली,
ढक गयी
समय की धूल के नींचे
कोई पोंछ दे हौले से
उस गर्द को,
अपनी उंगलिओं से
चमक उठेगी तस्वीर
मुस्कुराने लगेंगे
उसके रंग।
पर किसे फुरसत है इतनी?
किसे है इतनी परवाह?
अब सिर्फ काम आती है,
तारीखें देखने के,
जाड़ा-गर्मी-बरसात,
टंगी रहती है यूं ही।
कहीं नहीं जाती है,
कभी नहीं जाती है।
बदलती रहा है तारीखें
टंगी रह गयी है
तस्वीर!
भले ही टांगने वाले ने
टांगा था उसे
अपनी दीवार पर
मुग्ध होकर
उसकी सुन्दरता पर,
रीझ कर उसके
ख़ूबसूरत रंगों पर,
घंटों सामने खड़ा
निहारा भी करता था
उसकी नैसर्गिगता को!
पर धीरे-धीरे
तस्वीर कलैंडर हो गयी।
हो गयी धुंधली,
ढक गयी
समय की धूल के नींचे
कोई पोंछ दे हौले से
उस गर्द को,
अपनी उंगलिओं से
चमक उठेगी तस्वीर
मुस्कुराने लगेंगे
उसके रंग।
पर किसे फुरसत है इतनी?
किसे है इतनी परवाह?
अब सिर्फ काम आती है,
तारीखें देखने के,
जाड़ा-गर्मी-बरसात,
टंगी रहती है यूं ही।
कहीं नहीं जाती है,
कभी नहीं जाती है।
Sunday, January 31, 2010
कठपुतली
मेरे मालिक ,
लो मैं फिर प्रस्तुत हूँ
नाचने के लिए
तुम्हारे इशारों पर!
बहुत चाहा था मैंने,
झटक डालूँ
उन धागों को
जो बांधे हैं तुमने
मेरे हाथो से, पैरो से।
रच लूं एक नया आकाश
और खो जाऊं
उसकी निस्सीमता में!
लेकिन मेरे मालिक
मैं कहाँ से लाती
इतनी सामर्थ्य
वर्षो से अपाहिज बने
अपने हाथो में।
देखो, किस तरह लहूलुहान
अपने टूटे पंखो के साथ
पड़ी हूँ
इस पथरीली
रेतीली जमीन पर
भीख मांगती तुम्हारी दया की।
हाँ मेरे मालिक
स्वीकार कर लिया है मैंने
कि तुम नियंता हो मेरे
और मैं
कठपुतली तुम्हारी।
लो मैं फिर प्रस्तुत हूँ
नाचने के लिए
तुम्हारे इशारों पर!
बहुत चाहा था मैंने,
झटक डालूँ
उन धागों को
जो बांधे हैं तुमने
मेरे हाथो से, पैरो से।
रच लूं एक नया आकाश
और खो जाऊं
उसकी निस्सीमता में!
लेकिन मेरे मालिक
मैं कहाँ से लाती
इतनी सामर्थ्य
वर्षो से अपाहिज बने
अपने हाथो में।
देखो, किस तरह लहूलुहान
अपने टूटे पंखो के साथ
पड़ी हूँ
इस पथरीली
रेतीली जमीन पर
भीख मांगती तुम्हारी दया की।
हाँ मेरे मालिक
स्वीकार कर लिया है मैंने
कि तुम नियंता हो मेरे
और मैं
कठपुतली तुम्हारी।
Subscribe to:
Posts (Atom)