ठिठकने लगी है उंगलियाँ अब
तुम्हारे नाम से दो शब्द
लिखने के बाद।
रुक जाती हूँ
फोन के बटन दबाते- दबाते।
तुमसे दो बातें कर लेने की इच्छा
लम्बी साँस बन कर
हवा में घुलने लगी है
सामने पड़ा चाय का एक
खाली कप भी
कुछ नहीं कहता,
अब अकले पी लेने की
आदत पड़ गई है।
Tuesday, February 24, 2009
Tuesday, February 10, 2009
सपने, नदी और भइया
अब नहीं आते हो भइया
तुम सपनों में।
वे सपने
जिनमें मैं फंस जाती थी
किसी सूनी सड़क पर,
बारिश से नहाये
हरे- हरे लंबे पेड़ों
और डराते काले बादलों के बीच
जब मेरे सामने आ जाती थी
एक गहरी नदी
और इस पार डरती- कांपती खड़ी मैं
सोचती रहती थी कैसे जाऊँ उस पार!
और फ़िर
जाने कहाँ से
तुम आ खड़े होते नदी के उस किनारे,
कूद कर नदी में
बढ़ाते अपना हाथ
और पकड़ कर तुम्हारा हाथ
मैं पार कर जाती थी
भय की उस नदी को।
फ़िर भागते चले जाते हम
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
उस घर को
जहाँ माँ कर रही होती थी हमारा इंतजार।
सपने में तुम
तब भी आते रहे भइया
जब तुमने पकड़ा दिया मेरा हाथ
एक अजनबी को
और विदा करते हुए मुझे
कहा अब यही चलेगा तेरे साथ
तेरे सपनों में।
लेकिन घबराकर
उन अजनबी रास्तों के गुंजलक से
मैं फ़िर पहुँच जाती
सपनों में
तुम्हारे पास
और पकड़ कर तुम्हारी उंगली
अपनी मुट्ठी में
निश्चिंत हो लेती
सुरक्षा के उस एहसास में।
लेकिन जब
तुमने मिटा डाले मेरे सारे निशाँ
जो देते थे गवाही
घर में मेरे होने की,
और खींच ली
अपनी वो ऊंगली
जो बंद थी मेरी मुट्ठी में
पारस की तरह।
मैं टटोलती रही
बहुत दिनों तक
अपनी खाली मुट्ठी को
और जूझती रही
सपनों की उस गहरी नदी से,
फ़िर एक दिन देखा
ख़ुद ही पहुँच गई हूँ उस किनारे
पार कर गई हूँ भय की नदी।
सपने तो
अब भी आते हैं भइया,
लेकिन
अब तुम नहीं आते हो
सपनों में।
तुम सपनों में।
वे सपने
जिनमें मैं फंस जाती थी
किसी सूनी सड़क पर,
बारिश से नहाये
हरे- हरे लंबे पेड़ों
और डराते काले बादलों के बीच
जब मेरे सामने आ जाती थी
एक गहरी नदी
और इस पार डरती- कांपती खड़ी मैं
सोचती रहती थी कैसे जाऊँ उस पार!
और फ़िर
जाने कहाँ से
तुम आ खड़े होते नदी के उस किनारे,
कूद कर नदी में
बढ़ाते अपना हाथ
और पकड़ कर तुम्हारा हाथ
मैं पार कर जाती थी
भय की उस नदी को।
फ़िर भागते चले जाते हम
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
उस घर को
जहाँ माँ कर रही होती थी हमारा इंतजार।
सपने में तुम
तब भी आते रहे भइया
जब तुमने पकड़ा दिया मेरा हाथ
एक अजनबी को
और विदा करते हुए मुझे
कहा अब यही चलेगा तेरे साथ
तेरे सपनों में।
लेकिन घबराकर
उन अजनबी रास्तों के गुंजलक से
मैं फ़िर पहुँच जाती
सपनों में
तुम्हारे पास
और पकड़ कर तुम्हारी उंगली
अपनी मुट्ठी में
निश्चिंत हो लेती
सुरक्षा के उस एहसास में।
लेकिन जब
तुमने मिटा डाले मेरे सारे निशाँ
जो देते थे गवाही
घर में मेरे होने की,
और खींच ली
अपनी वो ऊंगली
जो बंद थी मेरी मुट्ठी में
पारस की तरह।
मैं टटोलती रही
बहुत दिनों तक
अपनी खाली मुट्ठी को
और जूझती रही
सपनों की उस गहरी नदी से,
फ़िर एक दिन देखा
ख़ुद ही पहुँच गई हूँ उस किनारे
पार कर गई हूँ भय की नदी।
सपने तो
अब भी आते हैं भइया,
लेकिन
अब तुम नहीं आते हो
सपनों में।
Monday, February 2, 2009
तुम होते हो तो
तुम होते हो तो
सब कुछ होता है,
दीवारों से घिरा ये मकान
एक घर हो जाता है
छत के अंधेरे कोने
रोशन हो जाते हैं
बंद दरवाजे के और
खींचे हुए परदों के पीछे
पलती खामोशी
कहानियाँ कहने लगाती हैं
तुम्हारी उँगलियों से छू कर
हर कल्पना
सजीव हो जाती है
भींगे बालों में
आईने के सामने बैठना
अर्थपूर्ण हो जाता है।
तुम होते हो तो
सब कुछ होता है ।
--एक बहुत पुरानी कविता
सब कुछ होता है,
दीवारों से घिरा ये मकान
एक घर हो जाता है
छत के अंधेरे कोने
रोशन हो जाते हैं
बंद दरवाजे के और
खींचे हुए परदों के पीछे
पलती खामोशी
कहानियाँ कहने लगाती हैं
तुम्हारी उँगलियों से छू कर
हर कल्पना
सजीव हो जाती है
भींगे बालों में
आईने के सामने बैठना
अर्थपूर्ण हो जाता है।
तुम होते हो तो
सब कुछ होता है ।
--एक बहुत पुरानी कविता
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