आदत रही है
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
बार-बार उठ रही है टीस ,
दर्द की लहरें
झकझोर रही हैं
पूरे शरीर को।
क्या करू?
छोड़ दूं खुला?
सड़ जाने दूं?
फ़ैलने दूं जहर
पूरे शरीर में?
या प्रतीक्षा करूँ
खुद ही सूख जाने की
वक्त के साथ
धीरे- धीरे।
बन जाने दूं
घाव को नासूर?
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की!
हाँ पता है,
मर जाएगी संवेदना
वहाँ पर की।
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना।
7 comments:
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना
.....
अच्छी प्रस्तुति......
http://laddoospeaks.blogspot.com/
रचना प्रभावित करती है।
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की ....
बहुत खूब ......
मुश्किलें इतनी पड़ी की आसान हो गईं ...
बहुत कुछ कहती है यह रचना ,बहुत पसंद आई यह शुक्रिया
जख्म मिलता रहा जख्म पीते रहे
रोज मरते रहे रोज जीते रहे
जिंदगी भी हमें आजमाती रही
और हम भी उसे आजमाते रहे
गोया हम भी किसी साज के तार हैं
चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे
आदत रही है
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
Behad samvedansheel rachna!
दर्द ही जीवन का सत्य है, यह भी एक दृष्टिकोण है.
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