थोड़ी देर बैठूं
तेरे सूने कमरे में,
थोड़ा और गहरा कर लूं
तेरे चले जाने का
एहसास !
कि जब तूं होता है
यह कमरा भी
बातें करता है।
तेरी ढेर सारी
ऐली- फैली चीजों को
अपने में समाये
थोड़ा झुंझलाता हुआ
पर खुश दिखता है।
इतराता है
अपने आप पर-
उसे पता है
कि विशिष्ट है वह थोड़ा
घर के शेष हिस्से से,
कि उसमें रहने वाले
चहरे के जगमग से
जगमगा रही हैं
पिता कि आशाएं,
और जिसकी आँखों में
तैरते सपनों में
देखती है माँ
अपने हिस्से का आकाश।
और जहाँ एक बच्चा
दिन भर डोलता है
एक छोटी- सी
जादुई दुनिया की तलाश में।
अब जबकि तूं
नहीं है यहाँ
और 'बाबु' ने
समेट दिया है
इसके बिखरेपन को,
हर कोना सजा दिया है
बड़े यत्न से ,
बड़ी तरतीब से,
कितना अकेला हो गया है
यह कमरा!
चुप है, उदास है, बोझिल है!
नहीं , जरा भी नहीं चौंका है
मेरे आने से।
बस, डूबा है अपने सूनेपन में!
मेरी तरह उसे भी
प्रतीक्षा है
तेरे फिर आने की।
4 comments:
एक ही स्थान(सम्बन्ध) विशेष के समयांतराल का जो चित्रण किया है आपने. ये अपने आप में अनूठी है.
कि जब तूं होता है
यह कमरा भी
बातें करता है।
शायद
चिट्ठी भी न कोई पाती भी नहीं है
तुम नहीं तो तरतीबीयत भी भाती नहीं है
bahut sundar...
हां दीदी, बढ़िया कविता हउ। धीरज धर तू भी और कमरा के भी धीरज रखे बोल। बावला जल्दीए अयतउ। :-)
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