थोडा और मर गया
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?
7 comments:
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....
बहुत सच्ची अच्छी रचना जो मेरे दिल के बहुत करीब लगी ...
मन का मोती, मन पर छा गया।
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Sach hai ... man ki aise sab konon ko maar dena chaahiye aur jeevan ki dubaara shuruaat karna hi jeevan hai ...
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....
Nice question to ask patriarchy.
Fine words can question both a person and a system at the same time.
Good job.
Peace,
Desi Girl
जीवन के यथार्थ को बहुत सलीके से बयान कर दिया आपने।
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नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....good..
आप बहुत अच्छा लिखती है .. आपकी ये कविता बहुत ही शानदार बन पड़ी है ....मन का कोना , हमेशा ही यादो से भरा हुआ होता है ..
आपको बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
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