बीत रहे हैं दिन
लिए हुए हाथों में कटोरा
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
रोज देखती हूँ कटोरे को
उलट कर , पलट कर,
सीधा कर, झुका कर।
कोई बूँद है क्या इसमें,
किसी रस की?
ना, सूखा है, रीता है,
जाने कब से
ऐसे ही पड़ा है।
साथ ले चलो,
चल पड़ेगा,
रख दो उठा कर कहीं,
पड़ा रहेगा।
फेंक दो,
झंनाता रहेगा थोड़ी देर
फिर स्थिर हो जायेगा।
धूप में तप जाता है
ठंढ में डंक मारता है
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।
11 comments:
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।
बहुत खूब ...सही कहा ..बढ़िया रही यह रचना
ज़िंदगी का यह भी एक रूप है ....अच्छी अभिव्यक्ति
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
bahut achhi rachana..........
रचना बेमानी सी जिंदगी की गहरी बात दर्शाती है ... बहुत खूब...
बेहद सशक्त रचना ज़िन्दगी का मर्म समझाती हुई।
अच्छा लगा आपके तरीके से जिंदगी को और आपको जानना
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
satya hai!
yahi to ghatit hota hai anwarat...
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है ...
ये तो इस जीवन की रीत है ... कटोरे को साथ ही रखना पड़ता है .... बहुत गहरे जज्बात ...
"जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है। "
ये दायरा यूं ही घूमता है अपने ही दायरे में. खूबसूरत और संवेदनशील प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.
very close to reality...
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