ये कविता मैंने 30 दिसंबर को चोखेरबाली में सुजाता जी के पोस्ट पर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लिखी थी। प्रकाशित करने में देर हुई ।
खड़ी रह यूँ ही
हाथों को अभय मुद्रा में
उठाये
माथे को आँचल से ढक के
पलकों को झुकाए,
तेरी यह मुद्रा
आश्वस्त करती है
कि
तू देती रहेगी क्षमा
हमें
हर गुनाह के लिए
बिना कोई प्रश्न पूछे
बिना कोई स्वर उठाए
किसी विरोध में।
बदले में उसके
हम कहते रहेंगे तुझे
देवी
त्याग कि मूर्ती
ममता की प्रतिकृति,
लेकिन तू
भूल से भी ख़ुद को
देवी समझने की
भूल मत करना
मत तानना अपना सिर
मत भरना आंखों में
अंगारे
मत उठाना हाथों में
भाले
क्योंकि तू है
हाड़ मांस की एक पुतली
नहीं है तुझमें शक्ति
शाप देने की
हाँ
ईश्वर ने जरुर बनाया है
तुझे कमजोर
और
दी हैं कुछ
शारीरिक विवशताएँ
और
हमारे एक हाथ में है
तेरी इस विवशता की
ढाल
और दूसरे में
हमारी पाशविक शक्ति की
तलवार
हम खींच सकते हैं
तेरी देह से
तेरा आँचल
रौंद सकते हैं तुझे
अपने पैरों तले।
बस इसी तरह
करती रह रखवाली
हमारे लिए
गुफा में जलती आग की।
और लौटने पर हमारे
परोसती रह हमें भुना मांस
और अपना शरीर
बदले में हम
करते रहेंगे तेरी रक्षा
जंगली भेड़ियों से
लेकिन
जिस दिन तू करेगी
चेष्टा
निकलने कि इस गुफा की
सीमा से
हम छोड़ देंगे
इन भेड़ियों को
नोचने के लिए
तेरी देह,
क्योंकि हमें आता है
यही एक तरीका
बताने का तुझे
तेरी सीमा।
ओ स्त्री खड़ी रह यूं ही।
6 comments:
अर्चना जी सच कहूँ तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए ....मेरे रोम रोम में एक अजीब सी हरकत हुई अचानक से .....
सच कहता हूँ दिल से ..मुझे आपकी रचना और आपकी अभिव्यक्ति बहुत पसंद आयी
बहुत गहरी भावपूर्ण रचना!!
गजब सोंचा है...गजब लिखा है...क्योंकि हमें आता है
यही एक तरीका
बताने का तुझे
तेरी सीमा।
ओ स्त्री खड़ी रह यूं ही।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
सही कविता है।
घुघूती बासूती
बहुत ही सुंदर रचना. मन को विचलित कर देने वाली भावपूर्ण प्रस्तुति. धन्यवाद
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