अनुराग बार बार कहता रहा है -'ब्लाग में कविता के अलावे भी कुछ डाल।' और मैं हमेशा ही कहती रही हूँ -' दिमाग अब केंद्रित न हो पाव हउ ।' कभी किसी क्षण में बिजली की कौंध की तरह कलेजे में उतर आए किसी एहसास को कविता का जामा पहना कर प्रस्तुत करना ज्यादा आसान लगता है मुझे, लेकिन उसी एहसास को किसी विचार की तरह प्रस्तुत करना अब बहुत कठिन लगता है। कभी किसी पढ़े पर, किसी घटना पर कोई दो पंक्ति की कोई प्रतिक्रिया दिमाग में आती भी है, तो उसे पकड़ कर रखने की कोई उपयोगिता भी है - यह विचार भी मन में नहीं आया कभी, और साथ ही - यह प्रतिक्रिया क्या किसी प्रतिक्रिया के योग्य है - विश्वास भी मैं नहीं जुटा पाई कभी। लेकिन अनुराग का कहना है - वही दू लाइन सही, तू पहले लिख तो।
सो उसके हिम्मत बंधाने पर पिछले दिनों जो बातें मेरे मन में अटकती रहीं हैं उन्हें शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ-
मेरे विचार से किसी तरह की चर्चा के लिए या लिखने के लिए जो विषय सबसे ज्यादा उपयुक्त होता है वह है सामाजिक घटनाक्रम। सामाजिक घटनाक्रम से मेरा तात्पर्य नितांत कालोनी स्तर पर हो रही घटनाएँ ही नहीं , थोड़े बड़े परिप्रेक्ष से भी है।
जैसे -पिछले दिनों 'दैनिक जागरण' के अन्तिम पृष्ठ पर छपे एक समाचार ने मेरा ध्यान खींचा था -"मुख्तारन बाई ने शादी रचाई।"
समाचार पढ़ने वाले पकिस्तान की मुख्तारन बाई को भूले नहीं होंगे। ये वही मुख्तारन बाई हैं जिन्हें उनके गाँव के पंचायत ने उनके 12 साल के भाई के किसी ऊंची जाति की लड़की से प्रेम के अपराध में सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी। लेकिन मुख्तारन बाई ने अपने आप को टूटने से बचाया और बाद में स्त्रियों के उत्थान के लिए काम और संघर्ष करती रहीं। उन्होंने ही पिछले दिनों अपनी अधेड़ावस्था में विवाह किया। इस समाचार ने मुझे उस व्यक्ति में कुतूहल जगाया जिसने बाई से शादी की। मेरे मन में कई प्रश्न थे - वह व्यक्ति पहले से ही बाल-बच्चेदार है? उसने बाई से शादी क्यों की? क्या वह मुख्तारन बी की जिजीविषा से प्रभावित हुआ या उसने उन पर कोई अहसान किया? या फ़िर यह मुख्तारन बाई की अपनी कोई विवशता थी। और जो दूसरा प्रश्न यह था की क्या वैमनस्य की स्थिति में वह उनके विगत जीवन के उस काले अध्याय के लिए उन्हें कभी कोई उलाहना नहीं देगा?
फिलहाल मैं उनके सुखी जीवन की कामना करती हूँ ।