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Wednesday, March 31, 2010

जख्म और संवेदना

आदत रही है
खुद पर लगे जख्मों को
जानवरों की तरह
चाट-चूट कर
खुद ही ठीक कर लेने की!
लेकिन इस बार जख्म
पीठ पर है।
ना कोई सहलाता हुआ
स्पर्श है,
ना कोई मरहम।
बार-बार उठ रही है टीस ,
दर्द की लहरें
झकझोर रही हैं
पूरे शरीर को।
क्या करू?
छोड़ दूं खुला?
सड़ जाने दूं?
फ़ैलने दूं जहर
पूरे शरीर में?
या प्रतीक्षा करूँ
खुद ही सूख जाने की
वक्त के साथ
धीरे- धीरे।
बन जाने दूं
घाव को नासूर?
फिर आदत पड़ जाएगी
इस दर्द के साथ
जीने की!
हाँ पता है,
मर जाएगी संवेदना
वहाँ पर की।
ठीक ही तो है,
ऐसे भी जरुरी है
जीने के लिए ,
संवेदनाओं का
मर जाना।

Sunday, March 7, 2010

दीवार पर टंगा कलैंडर

दीवार पर टंगा कलैंडर
बदलती रहा है तारीखें
टंगी रह गयी है
तस्वीर!
भले ही टांगने वाले ने
टांगा था उसे
अपनी दीवार पर
मुग्ध होकर
उसकी सुन्दरता पर,
रीझ कर उसके
ख़ूबसूरत रंगों पर,
घंटों सामने खड़ा
निहारा भी करता था
उसकी नैसर्गिगता को!
पर धीरे-धीरे
तस्वीर कलैंडर हो गयी।
हो गयी धुंधली,
ढक गयी
समय की धूल के नींचे
कोई पोंछ दे हौले से
उस गर्द को,
अपनी उंगलिओं से
चमक उठेगी तस्वीर
मुस्कुराने लगेंगे
उसके रंग।
पर किसे फुरसत है इतनी?
किसे है इतनी परवाह?
अब सिर्फ काम आती है,
तारीखें देखने के,
जाड़ा-गर्मी-बरसात,
टंगी रहती है यूं ही।
कहीं नहीं जाती है,
कभी नहीं जाती है।