मुझे याद है वो शाम,
जब शाम का धुंधलका
खिड़की के बाहर
धीरे धीरे फ़ैल रहा था और
आकाश से कुहासे बरस रहे थे।
तुम बिस्तर पर लेटे थे
और मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
जाने कब बाहर फ़ैल रहा धुंधलका
तुम्हारे चहरे पर उतर आया,
और कमरे के गहराते अंधेरे में मैंने
तुम्हारी लम्बी पलकों पर
कुहासे की बुँदे देखी।
अनायास ही मेरे हाथ उठे ,
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था
और मेरी बाहें छोटी।
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।