आज 6 मई है। अनुराग का जन्मदिन। जबसे वह मुझे दुबारा मिला है, मैं उसे हर बार विश करती हूं; इस विश्वास के साथ कि उसे इसकी प्रतीक्षा होगी।
उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।
इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।
मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।
हैपी बर्थ डे भाई।
पुनश्च -
कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!
उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।
इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।
मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।
हैपी बर्थ डे भाई।
पुनश्च -
कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!
4 comments:
अनुराग को जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई ...उनके जैसा प्यारा दोस्त आज कल के समय में मिलना बहुत मुश्किल है ..आपके लिखे इस लेख से उनके बारे में जाना ..शुक्रिया ...
रंजना जी के फोन अयलउ, तो देखलियउ तोर पोस्ट। पढ़े के बाद पुराना ढेर सारा बात याद आ गेलउ। अभी ऑफिस जाय ला हउ। तोर कविता 'बड़ी होती लड़कियां' एक दू दिन में अपन ब्लॉग पर डालबउ।
the content is so touchy. definately u r a very good communicator.
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