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Tuesday, December 8, 2009

मरहम

'देखो ना
फ़िर जल गया हाथ
छू गया गर्म तवे से'
'नाश्ता मिलने में देर है
अभी लगता है'
'लगा रही हूँ,
बस पाँच मिनट और।
देर से लौटोगे
क्या आज?'
'ओह,
मोज़े कहाँ चले गए मेरे!'
'वे रहे,
पड़े हैं जूतों के अन्दर।
थोड़ा लौटते सवेरे
तो निकलते कहीं हम
कितना वक्त हो गया
कहीं निकले हुए।'
'अब कहाँ चली गई
ये फाईल भी?'
'ये रही,
पड़ी थी टेबल पर।
आ सकोगे
थोड़ा पहले क्या?
'लगा लो दरवाजा।
हाँ, मत इंतजार करना
दुपहर के खाने पर मेरा,
मैं खा लूँगा कुछ
उधर ही।'
'अच्छा, लेकिन हो सके तो
कर देना एक फोन।'
'ठीक, बंद कर लो।'
चलूँ, समेटूं घर के
काम को।
अरे, पहले लगा लूँ
इस जले पर
कोई मरहम।

4 comments:

राकेश जैन said...

badhiya hai,,,par jo dard kavita me hai,uski marham nai milti...

M VERMA said...

जलते जलाते
चलो एक दिन और कटा

सुन्दर अभिव्यक्ति

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने । भाव, विचार और शिल्प का सुंदर समन्वय रचनात्मकता को प्रखर बना रहा है । मैने भी अपने ब्लाग पर एक कविता लिखी है। समय हो तो पढ़ें और कमेंट भी दें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com

वैचारिक संदर्भों पर केंद्रित लेख-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-मेरे इस ब्लाग पर पढ़ा जा सकता है-
http://www.ashokvichar.blogspot.com

dweepanter said...

बहुत ही सुंदर रचना है।
pls visit....
www.dweepanter.blogspot.com