दीवार पर टंगा कलैंडर
बदलती रहा है तारीखें
टंगी रह गयी है
तस्वीर!
भले ही टांगने वाले ने
टांगा था उसे
अपनी दीवार पर
मुग्ध होकर
उसकी सुन्दरता पर,
रीझ कर उसके
ख़ूबसूरत रंगों पर,
घंटों सामने खड़ा
निहारा भी करता था
उसकी नैसर्गिगता को!
पर धीरे-धीरे
तस्वीर कलैंडर हो गयी।
हो गयी धुंधली,
ढक गयी
समय की धूल के नींचे
कोई पोंछ दे हौले से
उस गर्द को,
अपनी उंगलिओं से
चमक उठेगी तस्वीर
मुस्कुराने लगेंगे
उसके रंग।
पर किसे फुरसत है इतनी?
किसे है इतनी परवाह?
अब सिर्फ काम आती है,
तारीखें देखने के,
जाड़ा-गर्मी-बरसात,
टंगी रहती है यूं ही।
कहीं नहीं जाती है,
कभी नहीं जाती है।
6 comments:
aseem vedna bhari hai aur bahut kuch bina kahe bhi kah diya hai...........ati sundar.
kyA bAT kah di in panktiyon men.
गहरी रचना...
हां दीदी, कैलेंडर की तरह हो चुके हैं हम सभी। धूल गर्द से भरे पड़े, क्योंकि कई बार आत्ममुग्ध भी हैं और उपेक्षित भी। दोनों ही स्थितियां घातक होती हैं। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि न तो कोई टांग सके, न हम टंगने की कोशिश करें। इनसान बने रहना सबसे अहम है इन दिनों...
अंतर्मन को झकझोरती है. और कुछ पड़ताल करती हुई रचना.
हर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
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