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Thursday, July 1, 2010

मन का कोना

थोडा और मर गया
मन का वह कोना
जो शेष रहता आया है
अब तक तुम्हारे लिए।
जाने कितने उलाहनों
अनगिनत तानों से
बार-बार छलनी होता हुया,
मरने लगा है
आहिस्ता-आहिस्ता।
मैनें भी छोड़ दिया है डालना,
आशाओं का खाद
आसुंओं का पानी।
मरता है ,
मर जाये।
क्या फर्क पड़ता है!
शारीर को जिन्दा रहना चाहिए,
जिन्दा रहेगा।
यूँही उठता बैठता रहेगा
तुम्हारी भावों के इशारों पर,
निभाता रहेगा
यंत्रवत सारे क्रिया-कलाप।
फिर भी नहीं उतर पायेगा
तुम्हारे एहसानों का कर्ज।
बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस?

7 comments:

रंजू भाटिया said...

बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....

बहुत सच्ची अच्छी रचना जो मेरे दिल के बहुत करीब लगी ...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मन का मोती, मन पर छा गया।
................
अपने ब्लॉग पर 8-10 विजि़टर्स हमेशा ऑनलाइन पाएँ।

दिगम्बर नासवा said...

Sach hai ... man ki aise sab konon ko maar dena chaahiye aur jeevan ki dubaara shuruaat karna hi jeevan hai ...

girlsguidetosurvival said...

बड़ी इच्छा है,
चिता पर चढ़ने से पहले भी
पूछ सकूँ तुमसे
क्या मेरी जिंदगी भर की
सेवाओं का
कोई मोल है तुम्हारे पास?
क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....

Nice question to ask patriarchy.
Fine words can question both a person and a system at the same time.

Good job.

Peace,

Desi Girl

Science Bloggers Association said...

जीवन के यथार्थ को बहुत सलीके से बयान कर दिया आपने।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

neelima garg said...

क्या जुटा सकुंगी
उस वक्त भी ,
इतना साहस? ....good..

vijay kumar sappatti said...

आप बहुत अच्छा लिखती है .. आपकी ये कविता बहुत ही शानदार बन पड़ी है ....मन का कोना , हमेशा ही यादो से भरा हुआ होता है ..

आपको बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html