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Sunday, November 7, 2010

जिंदगी का कटोरा

बीत रहे हैं दिन
लिए हुए हाथों में कटोरा
भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
रोज देखती हूँ कटोरे को
उलट कर , पलट कर,
सीधा कर, झुका कर।
कोई बूँद है क्या इसमें,
किसी रस की?
ना, सूखा है, रीता है,
जाने कब से
ऐसे ही पड़ा है।
साथ ले चलो,
चल पड़ेगा,
रख दो उठा कर कहीं,
पड़ा रहेगा।
फेंक दो,
झंनाता रहेगा थोड़ी देर
फिर स्थिर हो जायेगा।
धूप में तप जाता है
ठंढ में डंक मारता है
जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।

11 comments:

रंजू भाटिया said...

जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है।

बहुत खूब ...सही कहा ..बढ़िया रही यह रचना

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

ज़िंदगी का यह भी एक रूप है ....अच्छी अभिव्यक्ति

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 09-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

Anamikaghatak said...

bahut achhi rachana..........

Dr Xitija Singh said...

रचना बेमानी सी जिंदगी की गहरी बात दर्शाती है ... बहुत खूब...

vandana gupta said...

बेहद सशक्त रचना ज़िन्दगी का मर्म समझाती हुई।

रचना दीक्षित said...

अच्छा लगा आपके तरीके से जिंदगी को और आपको जानना

अनुपमा पाठक said...

भीख मांगते हुए जिंदगी से,
जिंदगी की!
satya hai!
yahi to ghatit hota hai anwarat...

दिगम्बर नासवा said...

जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है ...

ये तो इस जीवन की रीत है ... कटोरे को साथ ही रखना पड़ता है .... बहुत गहरे जज्बात ...

Dorothy said...

"जिंदगी का कटोरा
यूं ही साथ चलता रहता है। "

ये दायरा यूं ही घूमता है अपने ही दायरे में. खूबसूरत और संवेदनशील प्रस्तुति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

hamaarethoughts.com said...

very close to reality...