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Saturday, December 20, 2008

तुम्हारा इंतजार

कभी आते थे तुम्हारे साथ
बासंती हवा के झोंके,
सावन की बारिश की
रिमझिम फुहारें,

तुम्हारे होंठों से छू कर
भर जातीं थीं हथेलियाँ
मेहंदी के बूटोंसे।

बिना दस्तक के ही
खुल जाते थे किवाड़
और सामने तुम्हें देख
धड़क उठता था दिल
कानों में।

जाने कब,
जिंदगी के जंगल में
बिलाती चली गयीं
जिंदगी को जिन्दा रखने की
ये जरूरतें।

इंतजार तो अब भी
रहता है तुम्हारा ,
लेकिन अब
धड़कनों को
तुम्हारे आने का पता नहीं चलता।

7 comments:

संगीता पुरी said...

बहुत खूब !!!!

Anonymous said...

सुंदर और भावपूर्ण.

रंजू भाटिया said...

इंतजार तो अब भी
रहता है तुम्हारा ,
लेकिन अब
धड़कनों को
तुम्हारे आने का पता नहीं चलता।

अच्छी सच्ची रचना लगी आपकी अर्चना जी

P.N. Subramanian said...

हमें जो पंक्ति बेहद पसंद आई उसे ऊपर ही उद्धृत हो चुका है. कोई बात नही. रचना बेहद भावपूर्ण है.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

भाव और िवचार के समन्वय से रचना प्रभावशाली हो गई है । अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सत्य को सामाियक संदभोॆं में यथाथॆपरकर ढंग से अिभव्यक्त िकया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और अपनी कीमती राय भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

अनुराग अन्वेषी said...

भावनात्मक जुड़ाव की नदी रिश्तों के प्रदेश में सूखने लगी है - यह आज के इस दौर का कड़वा सच है। आपकी इस कविता में यह बात बड़ी सलीके से उभर कर आई है।

Vinay said...

आपने तो मुझे अपने काव्यपाश में बाँध लिया

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http://prajapativinay.blogspot.com/