सोंधा-सोंधा महकता है बाबु
जब लौटता है खेलकर
धूल मिटटी और
पसीने में नहाकर।
डाल कर अपनी बाहें
मेरे गले में
झूल जाता है
आम के पेड़ में झूलते
टिकोले की तरह।
रगड़ता है अपने गाल
मेरी बांह से,
दिखाता है अपने छिले हुए घुटने।
दर्द कम हो कुछ उसका,
मैं चूम लेती हूँ उसका मुंह
और ठिठक जाती हूँ।
बस, कुछ दिन और,
फ़िर रुई की तरह नर्म
इस होंठ पे ,
उभर आएगी
एक काली लकीर,
जो धीरे-धीरे फैलती चली जायेगी
मेरे और उसके बीच में।
5 comments:
एक मां की बैचेनी बढ रही है कि अब मेरा बाबू बडा हो कर मेरे को प्यार करना भूल जायेगा
बडिया रचना है मार्मीक है
बड़े होते बेटे को देखना माँ को ख़ुशी भी देता है पर उतनी ही शिद्दत से दूर जाने का एहसास का भी डर दिल में बैठने लगता है .अच्छा लगा आपका उसको कविता के रूप में कहना ...
बहुत अच्छी रचना ।
माँ mummy
sunder rachna
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