किसी दिन
आईने से बाहर निकल
मेरे चेहरे,
घूम आ कहीं
सडकों, गलियों, चौराहों पर।
फैला कर अपने नथुनों को
भर ले ढेर सारी ताजा हवा,
अपने फेफडों में,
और सोंच ले
कि अब चुप नहीं रह जाएगा
हर बात पर
लम्बी साँसें खींच कर।
नोच कर फेंक दे
अपने होठों पर
ताले कि तरह जड़ी
इस मुस्कान को
और वो बोल
जो रुका है अर्से से
तेरी जुबान पर।
यह दिखा,
देखने वालों को
कि समझौतों के नाम पर
और पलकें नहीं झुकायेगा तूं ,
कि खीचने आते हैं
तुझे भी
भौहों के धनुष।
और मेरे चेहरे
यह तय कर ले
कि अब तेरा सर
टिका रहेगा
तेरे ख़ुद के कन्धों पर,
कि अब जीने के लिए
किसी और के कन्धों की भीख
नहीं मांगेगा तूं।
किसी दिन आईने से बाहर
निकल मेरे चेहरे,
किसी दिन बाहर निकल।
5 comments:
किसी दिन...
बहुत ही खूब।
बेहतरीन अभिव्यक्ति!!
शुरू में तो लगता है कि बेहद मुश्किल है किसी चेहरे को आईने से बाहर निकालना। पर आदमी यह सोच ले कि आईने के चेहरे को बाहर की ताजा हवा लेनी है, किसी भी लक्ष्मण की किसी भी रेखा से बाहर जाकर हर तरह के रावण से लोहा लेना है तो समझो कि चेहरा आईने से बाहर निकल आया। अपने से बातचीत करती एक बेहद खूबसूरत कविता।
सोचती हुई यह आपकी एक और कविता, अच्छी लगी। एक बात यह कि आईनों से बाहर निकलना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। एक अदद स्ट्रांग वजह, एक अदद धक्का इनसाइड मोटिवेशन का..और बस आईने से बाहर चेहरा निकल पड़ता है और पूरा वजूद ताजी हवा में ऑक्सी-मय हो जाता है..
कि अब तेरा सर
टिका रहेगा
तेरे ख़ुद के कन्धों पर,
कि अब जीने के लिए
किसी और के कन्धों की भीख
नहीं मांगेगा तूं।
किसी दिन आईने से बाहर
निकल मेरे चेहरे,
किसी दिन बाहर निकल।
यदि यह दिल ठान ले तो फिर मुश्किल काहे की है ..पर इंसानी फितरत हर वक़्त दूसरो में अपना सहारा तलाश करती है ..पर यह भी सच है खुद से रूबरू होते हैं तो यह विचार दिल में आते जरुर हैं ..सुन्दर रचना
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