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Sunday, January 31, 2010

कठपुतली

मेरे मालिक ,
लो मैं फिर प्रस्तुत हूँ
नाचने के लिए
तुम्हारे इशारों पर!
बहुत चाहा था मैंने,
झटक डालूँ
उन धागों को
जो बांधे हैं तुमने
मेरे हाथो से, पैरो से।
रच लूं एक नया आकाश
और खो जाऊं
उसकी निस्सीमता में!
लेकिन मेरे मालिक
मैं कहाँ से लाती
इतनी सामर्थ्य
वर्षो से अपाहिज बने
अपने हाथो में।
देखो, किस तरह लहूलुहान
अपने टूटे पंखो के साथ
पड़ी हूँ
इस पथरीली
रेतीली जमीन पर
भीख मांगती तुम्हारी दया की।
हाँ मेरे मालिक
स्वीकार कर लिया है मैंने
कि तुम नियंता हो मेरे
और मैं
कठपुतली तुम्हारी।

4 comments:

vedvyathit said...

aap kth putli bni
ye usi ka prsad hai
nhi to is ko trste
bhut se hm bal hain
pr sbhi ko ek kripa ek kruna dee yhan
aap ka saubhagy hai ye
aap ne pai yhan

isi liye maans me likha hai
uma daru josit kee nain
sbai nchavt ram gusain
hm bhi nach rhe hain sb ko nachna hai
dr.vedvyathit@gmail.com

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!

दिगम्बर नासवा said...

जीवन की मजबूरियाँ कभी कभी ऐसे मुकाम पर ले आती हैं ....... सिर झुका कर सबकुछ कबूल करना पड़ता है ...... अच्छी रचना .....

Anonymous said...

स्वीकार कर लिया है मैंने
कि तुम नियंता हो मेरे
...

bahut kuch kah gain panktiyan

pooja