(१)
लगा था कि
अंजलि भर गई,
कब तक ठहरता ?
पानी ही तो था,
बह गया।
(२)
मेरा हाथ माँगते हुए
तुमने कहा था,
बदल दूंगा इनकी लकीरें।
तुम्हारे हाथ में
अपनी हथेलियाँ
सौंपने के बाद लगा
तुममें रेखाओं को
बदलने की
इच्छा तो थी
चेष्टा नहीं
(३)
अब पीठ को घेरती
बांह नहीं होती
जिंदगी धरातल पर
उतर आई है,
बिन बोले ही
तय होने लगे हैं रास्ते ,
गृहस्ती चल निकली है।
(४)
जाने क्यों
अपना चेहरा
बदरंग नजर आने लगा है,
तुम्हारी आखों के दर्पण
धुंधलाने लगे हैं शायद।
----कुछ पुरानी रचनाएँ
6 comments:
तुममें रेखाओं को
बदलने की
इच्छा तो थी
चेष्टा नहीं
waah bahut khub,saari kshanikaye sunder hai
सुंदर क्षणिकाएं।
हैं तो क्षणिकाएं, पर जीवन के पल-पल में पसरी हुई-सी। बेहद खूबसूरती के साथ रखती हैं ये क्षणिकाएं अपनी बात।
मनोहर रचनाएँ!
बहुत सुन्दर लगी सभी क्षणिकाएं .जिंदगी के करीब की है
achchi lagi.
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