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Friday, March 6, 2009

कल एक कविता लिखूंगी

थके से दरवाजे
उबासी लेती हुई खिड़कियां
रात भर जागी
आंखों की तरह
बोझिल दीवारें।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।
लेकिन वो कल नहीं आता,
आता है केवल
नामविहीन
तारीखविहीन
एक दिन,
जिसमें होते हैं
सुबह, दोपहर और शाम।
और सुबह, दोपहर, शाम
कोई कविता नहीं होती,
हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में
चुपके से
एक दिन और जुड़ जाता है।
बिस्तर पर लेट कर मैं
दरवाजे के खुलने
और बंद होने में
दिन महीने और सालों को
चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी!
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।

Tuesday, February 24, 2009

एक खाली कप

ठिठकने लगी है उंगलियाँ अब
तुम्हारे नाम से दो शब्द
लिखने के बाद।
रुक जाती हूँ
फोन के बटन दबाते- दबाते।
तुमसे दो बातें कर लेने की इच्छा
लम्बी साँस बन कर
हवा में घुलने लगी है
सामने पड़ा चाय का एक
खाली कप भी
कुछ नहीं कहता,
अब अकले पी लेने की
आदत पड़ गई है।

Tuesday, February 10, 2009

सपने, नदी और भइया

अब नहीं आते हो भइया
तुम सपनों में।
वे सपने
जिनमें मैं फंस जाती थी
किसी सूनी सड़क पर,
बारिश से नहाये
हरे- हरे लंबे पेड़ों
और डराते काले बादलों के बीच
जब मेरे सामने आ जाती थी
एक गहरी नदी
और इस पार डरती- कांपती खड़ी मैं
सोचती रहती थी कैसे जाऊँ उस पार!
और फ़िर
जाने कहाँ से
तुम आ खड़े होते नदी के उस किनारे,
कूद कर नदी में
बढ़ाते अपना हाथ
और पकड़ कर तुम्हारा हाथ
मैं पार कर जाती थी
भय की उस नदी को।
फ़िर भागते चले जाते हम
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
उस घर को
जहाँ माँ कर रही होती थी हमारा इंतजार।

सपने में तुम
तब भी आते रहे भइया
जब तुमने पकड़ा दिया मेरा हाथ
एक अजनबी को
और विदा करते हुए मुझे
कहा अब यही चलेगा तेरे साथ
तेरे सपनों में।
लेकिन घबराकर
उन अजनबी रास्तों के गुंजलक से
मैं फ़िर पहुँच जाती
सपनों में
तुम्हारे पास
और पकड़ कर तुम्हारी उंगली
अपनी मुट्ठी में
निश्चिंत हो लेती
सुरक्षा के उस एहसास में।
लेकिन जब
तुमने मिटा डाले मेरे सारे निशाँ
जो देते थे गवाही
घर में मेरे होने की,
और खींच ली
अपनी वो ऊंगली
जो बंद थी मेरी मुट्ठी में
पारस की तरह।

मैं टटोलती रही
बहुत दिनों तक
अपनी खाली मुट्ठी को
और जूझती रही
सपनों की उस गहरी नदी से,
फ़िर एक दिन देखा
ख़ुद ही पहुँच गई हूँ उस किनारे
पार कर गई हूँ भय की नदी।

सपने तो
अब भी आते हैं भइया,
लेकिन
अब तुम नहीं आते हो
सपनों में।

Monday, February 2, 2009

तुम होते हो तो

तुम होते हो तो
सब कुछ होता है,
दीवारों से घिरा ये मकान
एक घर हो जाता है
छत के अंधेरे कोने
रोशन हो जाते हैं
बंद दरवाजे के और
खींचे हुए परदों के पीछे
पलती खामोशी
कहानियाँ कहने लगाती हैं
तुम्हारी उँगलियों से छू कर
हर कल्पना
सजीव हो जाती है
भींगे बालों में
आईने के सामने बैठना
अर्थपूर्ण हो जाता है।
तुम होते हो तो
सब कुछ होता है ।

--एक बहुत पुरानी कविता

Sunday, January 18, 2009

ओ स्त्री

ये कविता मैंने 30 दिसंबर को चोखेरबाली में सुजाता जी के पोस्ट पर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद लिखी थी। प्रकाशित करने में देर हुई ।

ओ स्त्री
खड़ी रह यूँ ही
हाथों को अभय मुद्रा में
उठाये
माथे को आँचल से ढक के
पलकों को झुकाए,
तेरी यह मुद्रा
आश्वस्त करती है
कि
तू देती रहेगी क्षमा
हमें
हर गुनाह के लिए

बिना कोई प्रश्न पूछे
बिना कोई स्वर उठाए
किसी विरोध में।
बदले में उसके
हम कहते रहेंगे तुझे
देवी
त्याग कि मूर्ती
ममता की प्रतिकृति,
लेकिन तू
भूल से भी ख़ुद को
देवी समझने की
भूल मत करना
मत तानना अपना सिर
मत भरना आंखों में
अंगारे
मत उठाना हाथों में
भाले
क्योंकि तू है
हाड़ मांस की एक पुतली
नहीं है तुझमें शक्ति
शाप देने की
हाँ
ईश्वर ने जरुर बनाया है
तुझे कमजोर
और
दी हैं कुछ
शारीरिक विवशताएँ
और
हमारे एक हाथ में है
तेरी इस विवशता की
ढाल
और दूसरे में
हमारी पाशविक शक्ति की
तलवार
हम खींच सकते हैं
तेरी देह से
तेरा आँचल
रौंद सकते हैं तुझे
अपने पैरों तले।
बस इसी तरह
करती रह रखवाली
हमारे लिए
गुफा में जलती आग की।
और लौटने पर हमारे
परोसती रह हमें भुना मांस
और अपना शरीर
बदले में हम
करते रहेंगे तेरी रक्षा
जंगली भेड़ियों से
लेकिन
जिस दिन तू करेगी
चेष्टा
निकलने कि इस गुफा की
सीमा से
हम छोड़ देंगे
इन भेड़ियों को
नोचने के लिए
तेरी देह,
क्योंकि हमें आता है
यही एक तरीका
बताने का तुझे
तेरी सीमा।
ओ स्त्री खड़ी रह यूं ही।

Saturday, December 20, 2008

तुम्हारा इंतजार

कभी आते थे तुम्हारे साथ
बासंती हवा के झोंके,
सावन की बारिश की
रिमझिम फुहारें,

तुम्हारे होंठों से छू कर
भर जातीं थीं हथेलियाँ
मेहंदी के बूटोंसे।

बिना दस्तक के ही
खुल जाते थे किवाड़
और सामने तुम्हें देख
धड़क उठता था दिल
कानों में।

जाने कब,
जिंदगी के जंगल में
बिलाती चली गयीं
जिंदगी को जिन्दा रखने की
ये जरूरतें।

इंतजार तो अब भी
रहता है तुम्हारा ,
लेकिन अब
धड़कनों को
तुम्हारे आने का पता नहीं चलता।

Wednesday, December 10, 2008

तेरे एक फोन से

एक फोन कर
कुछ देर के लिए तो
टूटे मेरे मन की जड़ता,
कुछ देर तक
जुगाली करती रहूँ
तेरी बातों की।

तालाब के निष्क्रिये पड़े पानी में
कंकड़ फेंकने से
जैसे उठती है लहरें
महसूसती रहूँ
तेरी बातों से उठती
तरंगों को।

तेरी खुश-खुश बातों से
पुँछ जाए
मेरे मन की उदासी,
बसा कर तेरे सपनों को
अपनी आखों में
ले आऊँ थोडी देर को
अपने होठों पर भी
मुस्कराहट।

पोंछ कर
आंखों के कोनों में
उतर आए पानी की
बूंदों को
फ़िर से लग जाऊं
घर के काम में
एक फोन तो कर।