थके से दरवाजे
उबासी लेती हुई खिड़कियां
रात भर जागी
आंखों की तरह
बोझिल दीवारें।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।
लेकिन वो कल नहीं आता,
आता है केवल
नामविहीन
तारीखविहीन
एक दिन,
जिसमें होते हैं
सुबह, दोपहर और शाम।
और सुबह, दोपहर, शाम
कोई कविता नहीं होती,
हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में
चुपके से
एक दिन और जुड़ जाता है।
बिस्तर पर लेट कर मैं
दरवाजे के खुलने
और बंद होने में
दिन महीने और सालों को
चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी!
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।
11 comments:
दिन महीने और सालों को
चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ.....
सचमुच बहुत ही खोबसूरत तरीके से दिल की भावनाओं को लिखा है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
यह जीवन ही कविता है. आभार.
बहुत बढ़िया रचना है वैसे कविता कल की बजाय आज ही लिख ली वाह क्या बात है . हा हा . अच्छा लिखती है .
वाह क्या कहनी बहुत ही बढ़िया कविता वाह!
वल्लाह!! क्या बात है!!
बहुत अच्छी कविता लिखी, बहुत अच्छी!
कल पढना था ... पर आज ही पढ लिया ... अच्छी लगी।
हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में
चुपके से
एक दिन और जुड़ जाता है।
बहुत सुब्दर अभिव्यक्ति है
- विजय
दिन महीने और सालों को चुपचाप गुजरते हुए देखना वाकई बहुत बड़ी यातना होती है। इस यातना को जीना बहुत दुरुह है,उससे भी दुरुह है कि ऐसे पलों में से कोई अच्छी कविता चुरा ली जाये। एक जटिल स्थिति को सरलता के साथ रखती एक बहुत प्यारी कविता।
कविता तो बीतते पलों के साथ साथ चलती रहती है ..कागज पर कब उतरे यह तो दिल की बात है ..सुन्दर लगी आपकी कविता
-kau aur ke man ki main na jaanu par tumannai meye man ki baat kad-dayi!
-chup!!! hamesha vahi apni dehati lagaye rahta hai.
-muaaf karna ji mera apna dusara aks hai pichhale dasiyon saal se mumabi,delhi jaisi jagahon par mere sath rahne ke baavjood apni dehati bhasha nahi bhool paya hai isaki taraf se main mafi maang leta hun.
isaka kahane ka aashay tha ki dusare ke man ki ise pata nahi par aapne isake man ki baat apni kavita mein kah di|
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