बादलों पर चलने और
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।
9 comments:
बहुत उम्दा रचना है।बहुत सही लिखा है-
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।
बहुत सुंदर
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
...बहुत उम्दा लिखा है आपने.
ek jabrdast post ...ultimate..superb
यह आपने
सबसे अच्छा काम किया
कि तलाश शुरू कर दी
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आईं
चाँद की दुनिया से,
वरना चाँद भी बन जाता
कुछ ही दिनों में पृथ्वी!
अच्छी रचना है। बाद की चार पंक्तियां खास पसंद आईं।
गहरे एहसास हैं
---
तख़लीक़-ए-नज़र । चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें । तकनीक दृष्टा
बहुत यथार्थ वादी कविता |
गहरे एहसास लिए एक सच को कहती है आपकी यह रचना बहुत पसंद आई
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