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Sunday, April 26, 2009

लौट आई हूँ मैं

बादलों पर चलने और
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।

9 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उम्दा रचना है।बहुत सही लिखा है-

हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।

एस. बी. सिंह said...

बहुत सुंदर

Anonymous said...

बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।

...बहुत उम्दा लिखा है आपने.

अनिल कान्त said...

ek jabrdast post ...ultimate..superb

रावेंद्रकुमार रवि said...

यह आपने
सबसे अच्छा काम किया
कि तलाश शुरू कर दी
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आईं
चाँद की दुनिया से,
वरना चाँद भी बन जाता
कुछ ही दिनों में पृथ्वी!

Unknown said...

अच्छी रचना है। बाद की चार पंक्तियां खास पसंद आईं।

Vinay said...

गहरे एहसास हैं

---
तख़लीक़-ए-नज़रचाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलेंतकनीक दृष्टा

शोभना चौरे said...

बहुत यथार्थ वादी कविता |

रंजू भाटिया said...

गहरे एहसास लिए एक सच को कहती है आपकी यह रचना बहुत पसंद आई