मुझे याद है वो शाम,
जब शाम का धुंधलका
खिड़की के बाहर
धीरे धीरे फ़ैल रहा था और
आकाश से कुहासे बरस रहे थे।
तुम बिस्तर पर लेटे थे
और मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
जाने कब बाहर फ़ैल रहा धुंधलका
तुम्हारे चहरे पर उतर आया,
और कमरे के गहराते अंधेरे में मैंने
तुम्हारी लम्बी पलकों पर
कुहासे की बुँदे देखी।
अनायास ही मेरे हाथ उठे ,
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था
और मेरी बाहें छोटी।
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।
11 comments:
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।
Acchha hai ...
:)) कविता पढ के मेरा बच्पन याद आ गया जब मै स्कुल जाने से डरता था और गांव मे छीपने के लिये जगह खोजता था और जब छिप जाता तो फिर ठंढ और तेज लगता, ओस की बूदे उप्पर से गिरती|
और बाद मे जैसे ही स्कुल टाईम खत्म होता मै खुशी से घर आता :))) और स्कुल का डर मन से भाग जाता था
बहुत बढ़िया रचना है
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मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव
अनायास ही मेरे हाथ उठे ,
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
अति सुन्दर रचना
मूर्त संसार में सिर्फ पास होने भर से फासले कम नहीं होते..
अच्छी लगी कविता.
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।
gahri samvednaon ko ujagar karti pankttiyan...
Yun hi likhte rahiye.Shubkamnayen.
dhund kabhi kabhi khdiki se nikal ker man per cha jaati hai .kabhi aakho per. phir kuch bhi saaf nahi dikhta ..akhir kiyo....
badai kavita...
very interesting...
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था
और मेरी बाहें छोटी।
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।
बेहद भावपूर्ण रचना
बेहद भावपूर्ण रचना
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