मुझे याद है वो शाम,
जब शाम का धुंधलका
खिड़की के बाहर
धीरे धीरे फ़ैल रहा था और
आकाश से कुहासे बरस रहे थे।
तुम बिस्तर पर लेटे थे
और मैं तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
जाने कब बाहर फ़ैल रहा धुंधलका
तुम्हारे चहरे पर उतर आया,
और कमरे के गहराते अंधेरे में मैंने
तुम्हारी लम्बी पलकों पर
कुहासे की बुँदे देखी।
अनायास ही मेरे हाथ उठे ,
मैं पोंछ दूँ तुम्हारी पलकें।
लेकिन, तुम्हारा चेहरा मुझसे दूर था
और मेरी बाहें छोटी।
तुमने सर नहीं झुकाया,
और मैं?
मैं तो तुम्हारे पैरों के पास बैठी थी।
--तब की, जब मैं अठारह साल की थी।
Wednesday, August 19, 2009
Tuesday, July 28, 2009
इंशा अल्लाह मेरे बेटे
उसने बताया मुझे
क्लास की
सबसे सुंदर लड़की ने
किया है उसे 'प्रपोज'!
मैंने हंस कर कहा ,
स्वागत है उसका
हमारे परिवार में।
वह बोला ,
मुझे नहीं चाहिए
दीवार पर टांगने के लिए
कलैंडर ,
मुझे चाहिए
कंप्यूटर,
जिस पर बना सकूँ मैं
रोज नए प्रोग्राम।
मैंने हंस कर कहा,
क्या करेगा
दिमाग वाली लड़की ?
गृहस्थी के लिए
ठीक रहती हैं
कम दिमाग वाली
सुन्दर लड़कियां।
वह बोला
नहीं चाहिए मुझे
हर बात पर
'जैसी आपकी इच्छा ',
कहने वाली।
मुझे चाहिए वो
जो दे सके मुझे
सही और ग़लत का
निर्णय कर के।
मैंने पूछा
नौकरी करेगी वो?
हाँ माँ,
उसके होंगे ढेर सारे अधीनस्थ?
हाँ माँ,
उसका दिमाग होगा बाहर
लेकिन दिल होगा
घर में ?
हाँ माँ ,
बाँध कर रखेगी
पूरे परिवार को
अपनी बाहों में?
हाँ माँ ,
उसका चेहरा चमकेगा
स्वाभिमान की चमक से?
हां माँ,
वह 'ना' कह सकेगी तुझे
तेरी किसी बात के लिए?
हां माँ।
मैंने खुश हो कर कहा ,
फ़िर मैं बनाउंगी
उसके लिए भी खाना
उसकी पसंद का।
वह हंस कर बोला
'कुक ' रख लेंगे माँ।
इंशा अल्लाह मेरे बेटे!
क्लास की
सबसे सुंदर लड़की ने
किया है उसे 'प्रपोज'!
मैंने हंस कर कहा ,
स्वागत है उसका
हमारे परिवार में।
वह बोला ,
मुझे नहीं चाहिए
दीवार पर टांगने के लिए
कलैंडर ,
मुझे चाहिए
कंप्यूटर,
जिस पर बना सकूँ मैं
रोज नए प्रोग्राम।
मैंने हंस कर कहा,
क्या करेगा
दिमाग वाली लड़की ?
गृहस्थी के लिए
ठीक रहती हैं
कम दिमाग वाली
सुन्दर लड़कियां।
वह बोला
नहीं चाहिए मुझे
हर बात पर
'जैसी आपकी इच्छा ',
कहने वाली।
मुझे चाहिए वो
जो दे सके मुझे
सही और ग़लत का
निर्णय कर के।
मैंने पूछा
नौकरी करेगी वो?
हाँ माँ,
उसके होंगे ढेर सारे अधीनस्थ?
हाँ माँ,
उसका दिमाग होगा बाहर
लेकिन दिल होगा
घर में ?
हाँ माँ ,
बाँध कर रखेगी
पूरे परिवार को
अपनी बाहों में?
हाँ माँ ,
उसका चेहरा चमकेगा
स्वाभिमान की चमक से?
हां माँ,
वह 'ना' कह सकेगी तुझे
तेरी किसी बात के लिए?
हां माँ।
मैंने खुश हो कर कहा ,
फ़िर मैं बनाउंगी
उसके लिए भी खाना
उसकी पसंद का।
वह हंस कर बोला
'कुक ' रख लेंगे माँ।
इंशा अल्लाह मेरे बेटे!
Tuesday, July 7, 2009
कैसी हो तुम अब
उसे करनी होती हैं
बहुत सारी बातें
वह जब भी फोन करता है मुझे।
क्लास में मिले
किसी अच्छे कमेन्ट की,
ईर्ष्या से भरे
दोस्तों की प्रशंसाओं की,
कंधे पर टिके सर के
रेशमी बालों से
उठती खुशबुओं की,
अपनी महत्वाकांक्षाओं की,
बनते बिगड़ते योजनाओं की।
मैं चुप हो कर सुनती हूँ
आकाश में उड़ने को आतुर
उसके पंखों की आहटें ,
आशीषें देती हुई
हंसती रहती हूँ ,
उसकी बातों पर।
लेकिन शायद वह सुन लेता है
हँसी में दबी
मेरे अकेले पन की गूंज को,
आहिस्ता से उतर आता है
धरती पर ,
और पूछता है मुझसे ,
कैसी हो तुम अब?
बहुत सारी बातें
वह जब भी फोन करता है मुझे।
क्लास में मिले
किसी अच्छे कमेन्ट की,
ईर्ष्या से भरे
दोस्तों की प्रशंसाओं की,
कंधे पर टिके सर के
रेशमी बालों से
उठती खुशबुओं की,
अपनी महत्वाकांक्षाओं की,
बनते बिगड़ते योजनाओं की।
मैं चुप हो कर सुनती हूँ
आकाश में उड़ने को आतुर
उसके पंखों की आहटें ,
आशीषें देती हुई
हंसती रहती हूँ ,
उसकी बातों पर।
लेकिन शायद वह सुन लेता है
हँसी में दबी
मेरे अकेले पन की गूंज को,
आहिस्ता से उतर आता है
धरती पर ,
और पूछता है मुझसे ,
कैसी हो तुम अब?
Sunday, June 14, 2009
देह राग से परे
छुट्टी का एक दिन
मेरे साथ भी बिताओ जी!
नहीं, ऐसे नहीं।
देह राग से परे
सुनते हैं आज
कोई नया राग।
अच्छा, नहीं आता
तुम्हारी समझ में
ऐसा कुछ?
ठीक, चलो देख आते हैं
शहर की रौनक।
तुम्हे पसंद नहीं भीड़- भाड़?
मुझे भी कहाँ पसंद है।
चलो ,चलते हैं
किसी सूनी सड़क पर
जहाँ बिछे होंगे
पलाश के फूलों के लाल गलीचे।
मत करना दफ्तर की बातें
बच्चों के भविष्य की बातें भी नहीं
कुछ कहना तुम
अपने मन की,
कुछ कह लूंगी
मैं अपने दिल की।
अच्छा, नहीं बची है अब
तुम्हारे पास कोई बात
और सुन चुके हो मेरी भी बहुत!
चलो ठीक है,
कुछ नहीं बोलेंगे हम,
बस, चलते रहंगे
एक दूसरे का हाथ पकडे
और सुनेंगे,
गिरते पत्तों की ताल पर
बहती हवाओं का संगीत!
क्या कहा तुमने?
जब चुप ही रहना है
तो क्या बुरा है घर?
ठीक है फ़िर
तुम खोल लो टी वी
और मैं खोल लेती हूँ
फ़िर से आज का अखबार।
दिन ही तो काटने हैं,
कट जायेंगे!
मेरे साथ भी बिताओ जी!
नहीं, ऐसे नहीं।
देह राग से परे
सुनते हैं आज
कोई नया राग।
अच्छा, नहीं आता
तुम्हारी समझ में
ऐसा कुछ?
ठीक, चलो देख आते हैं
शहर की रौनक।
तुम्हे पसंद नहीं भीड़- भाड़?
मुझे भी कहाँ पसंद है।
चलो ,चलते हैं
किसी सूनी सड़क पर
जहाँ बिछे होंगे
पलाश के फूलों के लाल गलीचे।
मत करना दफ्तर की बातें
बच्चों के भविष्य की बातें भी नहीं
कुछ कहना तुम
अपने मन की,
कुछ कह लूंगी
मैं अपने दिल की।
अच्छा, नहीं बची है अब
तुम्हारे पास कोई बात
और सुन चुके हो मेरी भी बहुत!
चलो ठीक है,
कुछ नहीं बोलेंगे हम,
बस, चलते रहंगे
एक दूसरे का हाथ पकडे
और सुनेंगे,
गिरते पत्तों की ताल पर
बहती हवाओं का संगीत!
क्या कहा तुमने?
जब चुप ही रहना है
तो क्या बुरा है घर?
ठीक है फ़िर
तुम खोल लो टी वी
और मैं खोल लेती हूँ
फ़िर से आज का अखबार।
दिन ही तो काटने हैं,
कट जायेंगे!
Sunday, May 10, 2009
आईने से बाहर
किसी दिन
आईने से बाहर निकल
मेरे चेहरे,
घूम आ कहीं
सडकों, गलियों, चौराहों पर।
फैला कर अपने नथुनों को
भर ले ढेर सारी ताजा हवा,
अपने फेफडों में,
और सोंच ले
कि अब चुप नहीं रह जाएगा
हर बात पर
लम्बी साँसें खींच कर।
नोच कर फेंक दे
अपने होठों पर
ताले कि तरह जड़ी
इस मुस्कान को
और वो बोल
जो रुका है अर्से से
तेरी जुबान पर।
यह दिखा,
देखने वालों को
कि समझौतों के नाम पर
और पलकें नहीं झुकायेगा तूं ,
कि खीचने आते हैं
तुझे भी
भौहों के धनुष।
और मेरे चेहरे
यह तय कर ले
कि अब तेरा सर
टिका रहेगा
तेरे ख़ुद के कन्धों पर,
कि अब जीने के लिए
किसी और के कन्धों की भीख
नहीं मांगेगा तूं।
किसी दिन आईने से बाहर
निकल मेरे चेहरे,
किसी दिन बाहर निकल।
आईने से बाहर निकल
मेरे चेहरे,
घूम आ कहीं
सडकों, गलियों, चौराहों पर।
फैला कर अपने नथुनों को
भर ले ढेर सारी ताजा हवा,
अपने फेफडों में,
और सोंच ले
कि अब चुप नहीं रह जाएगा
हर बात पर
लम्बी साँसें खींच कर।
नोच कर फेंक दे
अपने होठों पर
ताले कि तरह जड़ी
इस मुस्कान को
और वो बोल
जो रुका है अर्से से
तेरी जुबान पर।
यह दिखा,
देखने वालों को
कि समझौतों के नाम पर
और पलकें नहीं झुकायेगा तूं ,
कि खीचने आते हैं
तुझे भी
भौहों के धनुष।
और मेरे चेहरे
यह तय कर ले
कि अब तेरा सर
टिका रहेगा
तेरे ख़ुद के कन्धों पर,
कि अब जीने के लिए
किसी और के कन्धों की भीख
नहीं मांगेगा तूं।
किसी दिन आईने से बाहर
निकल मेरे चेहरे,
किसी दिन बाहर निकल।
Monday, May 4, 2009
हैपी बर्थ डे भाई
आज 6 मई है। अनुराग का जन्मदिन। जबसे वह मुझे दुबारा मिला है, मैं उसे हर बार विश करती हूं; इस विश्वास के साथ कि उसे इसकी प्रतीक्षा होगी।
उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।
इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।
मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।
हैपी बर्थ डे भाई।
पुनश्च -
कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!
उसके दुबारा मिलने से मेरा तात्पर्य तब से है, जब मैंने उसे लंबे अंतराल के बाद तब देखा जब वह 19-20 वर्ष का हो चुका था। उसके पहले वह 4 वर्ष का था, जब हमलोग रांची से पटना आ गये थे। और पटना से रांची और रांची से पटना की दूरी वर्षों में फैल गयी थी।
इन वर्षों में बहुत कुछ घटित हुआ था उसमें एक घटना मेरी शादी भी थी। मैं ससुराल में थी जब अनुराग मेरी मां के यहां आया था। मेरी उससे मुलाकात नहीं हो पायी थी। कुछ दिनों बाद, अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद मैं मायके आई हुई थी और मैं किसी कारण दरवाजे पर खड़ी हुई थी जब मैंने एक सांवले लड़के को रिक्शे पर आते देखा। उसने रिक्शे से उतरते हुए मुझे बड़ी आत्मीयता से देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ और जब रिक्शेवाले को पैसे देते हुए उसने मुझे फिर देखा तो मुझे उसके नदीदेपन पर गुस्सा भी आया। फिर मैं उसे आश्चर्य से देखती रही जब वह मेरे पास आया और सूटकेस नीचे रखकर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। तु हमरा न पहचानबे - उसने कहा। हम तोरा सच में न पहचानलियउ - मैंने विस्मय से उबरते हुए कहा। हम अनुराग हियउ - उसने कहा और मेरे पैरों में झुक गया। उस वक्त 'खुश रह' के अस्फुट उच्चारण के साथ उसकी पीठ पर हाथ रखते हुए मेरी आंखें भीग गई थीं। क्यों? पता नहीं। आत्मीयता शायद इसी तरह अंतःकरण पर दस्तक देती है। उस रोज खुले दरवाजे से अंदर आया अनुराग, सीधे उस घर में रहनेवालों के दिलों में उतरा। भइया के गिटार पर अपनी धुनें बजाते हुए उसने स्वयं को भाभी का दूसरा वर धोषित किया और मेरी मां को बड़ी मां पुकारता हुआ पूरे घर में फैल गया। 4 वर्ष का अनुराग मेरी मां के साथ ही सोता था। लेकिन 20 वर्ष के अनुराग ने अपनी चाची को बड़ी मां बनाया और जैसे आंधी में उखड़ गये पेड़ को अच्छे से धरती में लगा दिया। वह मेरा भाई था, लेकिन मित्र बन गया। हम सबकुछ बांटने लगे। सुख-दुख, अपक्षाएं-उपेक्षाए, टूटना-जुड़ना - सब कुछ।
मुझे याद है मेरे दूसरे बच्चे के जन्म के समय मुझे खून चढ़ाने की नौबत आ गई थी। मैंने उसे इस आशंका के विषय में पहले बताया तो उसने ऑपरेशन के समय मौजूद रहने की बात कही ताकि जरूरत पड़ने पर वह अपना खून दे सके (उसके मेरे खून का ग्रुप एक ही है)। लेकिन किसी कारण से वह बच्चे के जन्मोत्सव में भी नहीं आ पाया था। बाद में मिलने पर मैंने उसे उलाहना दिया था - तु हमारा खून देवे ला आवे वाला हलें, तु तो बाबू के छट्ठियो में भी न अइलें। वह आंखों में आंसू भर कर मुझे देखता रहा, फिर मेरे पास पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
वह मुझसे कभी हिंदी में बात नहीं करता। शायद दुनियादारी की यह भाषा हमारी आत्मीयता को सही रूप में विश्लेषित नहीं कर पाती। ढेरों स्मृतियां हैं। पत्रों की, बातों की, फोन कॉल्स की, जो मुझे उसके व्यक्तित्व की विविधता का स्मरण करा रही हैं। लेकिन वह सब फिर कभी। आज उसका जन्मदिन है और ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि उसे वह सब कुछ मिले जो उसकी चाहना है। खूब फले-फूले - यह सच भी हो। अपने क्षेत्र मे ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे।
हैपी बर्थ डे भाई।
पुनश्च -
कुछ दिन पहले पाउलो पोलहो का उपन्यास ब्रिडा पढ़ी थी, उसमें सोल मेट की बात कही गई है। लेकिन उसकी अवधारणा है कि सोल मेट प्रेमी प्रेमिका ही होते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि सोल मेट कोई भी हो सकता है - बेटे-बेटी, मां-बाप, भाई-बहन, कोई भी। है न!
Sunday, April 26, 2009
लौट आई हूँ मैं
बादलों पर चलने और
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।
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