Sunday, April 26, 2009
लौट आई हूँ मैं
चाँदनी में नहाने दिन
नहीं रहे अब मेरे।
क्योंकि चाँद की दुनिया से
लौट आई हूँ मैं।
बालों को उलझाती
पागल हवाओं नें
साथ उड़ चलने का निमंत्रण
वापस ले लिया है।
बारिश का पानी भी अब
कतरा कर निकालने लगा है मुझसे
क्योंकि उसे भी पता है
कि इसके पहले कि उसकी छुअन
मेरे प्राणों तक पहुंचे
मैं झटक दूंगी उसकी बूंदों को।
ये चाँदनी, ये हवाएं, ये बारिश,
हैरत में हैं
ये देख कर
कि मैंने तलाश शुरू कर दी है
अपने पैरों के नींचे की जमीन की
और लौट आई हूँ
चाँद की दुनिया से।
Friday, April 17, 2009
बात जो अटक गई
मैं कोई विचारक या आलोचक नहीं हूँ। बस एक सामान्य मनुष्य की तरह अच्छे और बुरे को देखती हूँ। इसलिए बस इतना ही कह सकती हूँ कि 'दलाई लामा' को पढ़ना सुख और शान्ति के बीच से गुजरने जैसा था। उनके भाषण के अन्तिम अंश के वाक्यों में एक वाक्य -"आप धार्मिक सहिष्णुता और अहिंसा के अपने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को अपनाएं"-मेरे विचार से अभी की परस्थिति की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
'मौलाना महमूद मदनी' साहब का भाषण बहुत प्रभावित करता है। यह दिमाग की धुंध साफ़ करने जैसा है। लेकिन उनके भाषण में जो बात मुझे अटक गई वो थी -"मुझसे पूछा जाता है कि मैं इस्लाम से मुहब्बत करता हूँ या इस मुल्क से ? यह एक कठिन सवाल है। अगर मैं कहता हूँ इस्लाम से तो वे मुझे राष्ट्रभक्त नहीं मानेंगे। मुझे हमेशा ही इस्लाम या भारत के प्रति अपनी वफादारी साबित कराने के लिए कहा जाता है। अब मैं कहता हूँ कि मेरी दो आँखे हैं और आप हमें बताएं कि किसे रखूं और किसे फेंक दूँ। लेकिन मैं अपने महजब को प्राथमिकता दूंगा जिसने मेरे अन्दर अपने मादरे वतन की रक्षा के लिए जिंदगी कुर्बान करने का जज्बा दिया ......."।
मैं 'मौलाना मदनी' साहब के विचारों का अत्यन्त आदर करते हुए अपनी तरफ़ से एक बात कहना चाहती हूँ-अगर कोई मुझे दो विकल्प दे, तुम हिंदू रहो लेकिन तुम्हें भारत छोड़ कर किसी और देश में में बस जाना होगा, या , तुम्हें भारत में रहने के लिए कोई दूसरा धर्म स्वीकार करना होगा, तो मैं निश्चित रूप से दूसरा विकल्प स्वीकार कर लुंगी। क्योकि मेरे लिए मेरा देश नि:संदेह मेरे धर्म से बड़ा है। इस विषय में मेरे इक ही आँख है ,वो है 'हिंदुस्तान'।
Tuesday, April 7, 2009
एक काली लकीर
जब लौटता है खेलकर
धूल मिटटी और
पसीने में नहाकर।
डाल कर अपनी बाहें
मेरे गले में
झूल जाता है
आम के पेड़ में झूलते
टिकोले की तरह।
रगड़ता है अपने गाल
मेरी बांह से,
दिखाता है अपने छिले हुए घुटने।
दर्द कम हो कुछ उसका,
मैं चूम लेती हूँ उसका मुंह
और ठिठक जाती हूँ।
बस, कुछ दिन और,
फ़िर रुई की तरह नर्म
इस होंठ पे ,
उभर आएगी
एक काली लकीर,
जो धीरे-धीरे फैलती चली जायेगी
मेरे और उसके बीच में।
Wednesday, April 1, 2009
कुछ क्षणिकाएं
लगा था कि
अंजलि भर गई,
कब तक ठहरता ?
पानी ही तो था,
बह गया।
(२)
मेरा हाथ माँगते हुए
तुमने कहा था,
बदल दूंगा इनकी लकीरें।
तुम्हारे हाथ में
अपनी हथेलियाँ
सौंपने के बाद लगा
तुममें रेखाओं को
बदलने की
इच्छा तो थी
चेष्टा नहीं
(३)
अब पीठ को घेरती
बांह नहीं होती
जिंदगी धरातल पर
उतर आई है,
बिन बोले ही
तय होने लगे हैं रास्ते ,
गृहस्ती चल निकली है।
(४)
जाने क्यों
अपना चेहरा
बदरंग नजर आने लगा है,
तुम्हारी आखों के दर्पण
धुंधलाने लगे हैं शायद।
----कुछ पुरानी रचनाएँ
Monday, March 23, 2009
अनुराग के कहने पर
अनुराग बार बार कहता रहा है -'ब्लाग में कविता के अलावे भी कुछ डाल।' और मैं हमेशा ही कहती रही हूँ -' दिमाग अब केंद्रित न हो पाव हउ ।' कभी किसी क्षण में बिजली की कौंध की तरह कलेजे में उतर आए किसी एहसास को कविता का जामा पहना कर प्रस्तुत करना ज्यादा आसान लगता है मुझे, लेकिन उसी एहसास को किसी विचार की तरह प्रस्तुत करना अब बहुत कठिन लगता है। कभी किसी पढ़े पर, किसी घटना पर कोई दो पंक्ति की कोई प्रतिक्रिया दिमाग में आती भी है, तो उसे पकड़ कर रखने की कोई उपयोगिता भी है - यह विचार भी मन में नहीं आया कभी, और साथ ही - यह प्रतिक्रिया क्या किसी प्रतिक्रिया के योग्य है - विश्वास भी मैं नहीं जुटा पाई कभी। लेकिन अनुराग का कहना है - वही दू लाइन सही, तू पहले लिख तो।
सो उसके हिम्मत बंधाने पर पिछले दिनों जो बातें मेरे मन में अटकती रहीं हैं उन्हें शक्ल देने की कोशिश कर रही हूँ-
मेरे विचार से किसी तरह की चर्चा के लिए या लिखने के लिए जो विषय सबसे ज्यादा उपयुक्त होता है वह है सामाजिक घटनाक्रम। सामाजिक घटनाक्रम से मेरा तात्पर्य नितांत कालोनी स्तर पर हो रही घटनाएँ ही नहीं , थोड़े बड़े परिप्रेक्ष से भी है।
जैसे -पिछले दिनों 'दैनिक जागरण' के अन्तिम पृष्ठ पर छपे एक समाचार ने मेरा ध्यान खींचा था -"मुख्तारन बाई ने शादी रचाई।"
समाचार पढ़ने वाले पकिस्तान की मुख्तारन बाई को भूले नहीं होंगे। ये वही मुख्तारन बाई हैं जिन्हें उनके गाँव के पंचायत ने उनके 12 साल के भाई के किसी ऊंची जाति की लड़की से प्रेम के अपराध में सामूहिक बलात्कार की सजा सुनाई थी। लेकिन मुख्तारन बाई ने अपने आप को टूटने से बचाया और बाद में स्त्रियों के उत्थान के लिए काम और संघर्ष करती रहीं। उन्होंने ही पिछले दिनों अपनी अधेड़ावस्था में विवाह किया। इस समाचार ने मुझे उस व्यक्ति में कुतूहल जगाया जिसने बाई से शादी की। मेरे मन में कई प्रश्न थे - वह व्यक्ति पहले से ही बाल-बच्चेदार है? उसने बाई से शादी क्यों की? क्या वह मुख्तारन बी की जिजीविषा से प्रभावित हुआ या उसने उन पर कोई अहसान किया? या फ़िर यह मुख्तारन बाई की अपनी कोई विवशता थी। और जो दूसरा प्रश्न यह था की क्या वैमनस्य की स्थिति में वह उनके विगत जीवन के उस काले अध्याय के लिए उन्हें कभी कोई उलाहना नहीं देगा?
फिलहाल मैं उनके सुखी जीवन की कामना करती हूँ ।
Sunday, March 15, 2009
नहीं कोई शिकायत नहीं
वे दिन
जब मुझे था यकीन कि
बिछा दोगे तुम
अपनी हथेलियाँ
अगर तपती होगी जमीन
मेरे पैरों के नीचे।
लेकिन शायद थक गए थे तुम
मेरा यह विश्वाश
ढोते-ढोते।
कुछ प्राप्य भी तो नहीं था तुम्हें
सिर्फ़ एक विश्वाश का पाथेय
और जिन्दगी भर का सफर
इतना आसान नहीं था सब कुछ।
नहीं, कोई शिकायत नहीं,
दुःख भी नहीं है शायद,
हाँ, लेकिन याद तो
बहुत आती है तुम्हारी
जब तपती है जमीन
मेरे पैरों के नीचे।
Friday, March 6, 2009
कल एक कविता लिखूंगी
उबासी लेती हुई खिड़कियां
रात भर जागी
आंखों की तरह
बोझिल दीवारें।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।
लेकिन वो कल नहीं आता,
आता है केवल
नामविहीन
तारीखविहीन
एक दिन,
जिसमें होते हैं
सुबह, दोपहर और शाम।
और सुबह, दोपहर, शाम
कोई कविता नहीं होती,
हाँ, उम्र के बढ़ते सालों में
चुपके से
एक दिन और जुड़ जाता है।
बिस्तर पर लेट कर मैं
दरवाजे के खुलने
और बंद होने में
दिन महीने और सालों को
चुपचाप गुजरता हुआ देखती हूँ।
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी!
रोज सोचती हूँ
कल एक कविता लिखूंगी।